लालू के चिरागों ने लालटेन बुझा दी

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17वीं लोकसभा के लिए महाजनादेश के बाद एक तरफ जहां BJP के पांव आज जमीन पर नहीं होंगे वहीं विरोधी दलों के पैरों के नीचे की जमीन ही खिसक गई लगती है। बिहार में महागठबंधन की सिरफुटौव्वल और बिना जनाधार के नेताओं की पार्टी को जरूरत से ज्यादा तवज्जो देना भारी पड़ा है। रिजल्ट से साफ है कि MY समीकरण फेल हो गया है और जिस “भूरा – बाल” (भूमिहार-राजपूत-ब्राह्मण-लाला) को साफ करने की कवायद अरसे तक लालू यादव करते रहे उसके चंगुल में फंसकर अपना जनाधार खो बैठे हैँ। तेजस्वी यादव का अपनी जाति की राजनीति से ऊपर नहीं उठना और ऐन चुनाव के वक्त बीजेपी सरकार द्वारा दिए गए सवर्ण आरक्षण के लॉलीपॉप के झांसे से राज्य की जनता को निकालने की बजाय उनको और गुमराह करना नुकसान का सौदा हो गया।

समीकरण का गणित कागजों पर ही रहा

पूरे देश में जिस तरीके का मैनडेट बीजेपी को मिला है स्पष्ट है कि जातिगत समीकरण धाराशाई हुए हैं। बिहार में गठबंधन की पूरी राजनीति जात-पात के इर्द गिर्द अपना गणित बिठाने में होती रही और दूसरी तरफ राष्ट्रवाद के तड़के ने अपना काम कर दिया। बीजेपी और उसके सहयोगी दलों के वोट बैंक को देखें तो बिहार के पचास फीसदी सीटों पर महागठबंधन के जातीय समीकरण भारी पड़ते हैं लेकिन लगभग सारी सीटों पर मजबूत जीत ने साफ कर दिया कि वोटर ने तय कर रखा था कि आएगा तो मोदी ही। उसपर गठबंधन के नेताओं के उल्टे सीधे बयान ने सारे जातिगत समीकरण को कागजों तक समेट कर रख दिया और विपक्ष की तुष्टिकरण की राजनीति को जोर का झटका जोर से लगा।

जाति की राजनीति का तिलिस्म टूटना लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत

अगले साल बिहार में विधानसभा चुनाव होने हैं औऱ RJD के लिए मुश्किलें अब मुंह बाये खड़ी है। पिछली बार विधानसभा में सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर रही पार्टी को अपना जनाधार समेट कर रखना मुश्किल होगा, क्योंकि लालू ने जिस तबके को जुबान दी वो भी जाति के दायरे से बाहर जाकर मोदी मोदी का जाप करने लगा है और इस चुनाव का जनादेश यही संदेश देता है, अगर ये वाकई ऐसा है तो समझिए कि लालटेन जलाने के लिए अब अधिक ज्वलनशील पदार्थ की जरूरत होगी। ठीक है कि राजनैतिक पार्टियां वोट के लिए जातियों की राजनीति करती हैं लेकिन जीतने के बाद सारी जनता का ख्याल रखना उसका फर्ज औऱ धर्म दोनों है, और अब जनता ने बता दिया है कि उससे चूकोगे तो फिर चूक भारी पड़ेगी।

उलझे हुए गठबंधन का नतीजा 

लोकसभा चुनाव से ठीक पहले जब महागठबंधन की कवायद चल रही थी तो कई पार्टियों के नेता लालू यादव से मिलने जेल में गए थे। जितनी सीटों की मांग ये नेता अपनी पार्टी के लिए कर रहे थे लालू ने न सिर्फ देने से इंकार किया बल्कि ये भी कहा कि पहले अपने कैंडिडेट तो बताओ। हालांकि काफी मान मनौव्वल और तेजस्वी के हस्तक्षेप के बाद कांग्रेस को छोड़ बाकी सभी सहयोगियों को उम्मीद और औकात से ज्यादा सीटें दे दी गई और फिर टिकटों की खरीद-फरोख्त का नतीजा निकला कि जातिगत राजनीति का समीकरण उलझ गया । गठबंधन की शुरुआत ही उलझन से हुई । जिस सीट पर जो उम्मीदवार औऱ पार्टी ज्यादा बेहतर साबित हो सकती थी उसकी बजाए दूसरी पार्टी और अनजाने चेहरों को सिर्फ पैसों की ताकत पर उतार कर अपने अहंकार की पुष्टि करने का नतीजा मिला कि आज पार्टी के गठन के  बाद से पहली बार RJD  लोकसभा में शून्य पर आकर सिमट गई।

लालू की गैरमौजूदगी का असर 

पहली बार हुआ कि लालू चुनाव में मौजूद नहीं रहे और ट्वीटर-फेसबुक के जरिए इमोशनल अपील का भी असर नहीं हुआ । लालू के जीवन काल में ही उनकी खड़ी इमारत रेत के किले की तरह भरभराकर गिर गई। जिस तबके की राजनीति लालू करते रहे उस तबके ने जब अपनी और लालू के कुनबे की तुलना की तो ठगा सा महसूस किया, उसे लगा कि हमारी राजनीति करते करते ये तो न जाने क्या से क्या हो गए और हमें दो घर में बिजली, गैस, रोटी और घर किसी और ने दे दिया । तो जिसने दिया उसके साथ हो लिए ।

अब तेजस्वी को दो-चार दिन थकान उतार कर पहले अपने परिवार से पार पाना होगा फिर कुनबा समेटने की ओर बढ़ना होगा। सोच बड़ी करनी होगी। आरक्षण की नीतियों को ठीक से समझना होगा, खुद स्कूल- कॉलेज नहीं गए तो कोई बात नहीं लेकिन सारी समझदारी प्रोफेसरों के भरोसे नहीं छोड़ना होगा। सालों से बिहार से दूर होकर कॉलेज में पढ़ा रहे प्रोफेसर मनोज झा को दिल्ली में चैनलों पर बैठकर डिबेट करने भर के लिए रखें तो ठीक नहीं तो उनके पढ़ाए पाठ का नतीजा सामने है। हालांकि जिस कदर बिहार ने जात की सीमा लांघ कर मोदी को वोट किया है वो मजबूत लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत है।

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