ब्रिटेन: महारानी विदा ब्रितानी लोकतंत्र की नई चुनौतियां

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अनुरंजन झा, लंदन से

“महारानी ने अपने संयम, दृढ़ निश्चय और सूझ-बूझ से ब्रिटेन के राजपरिवार में लोगों का भरोसा बनाए रखा”

अपने जीते जी ही दुनिया भर में किंवदंती बन चुकीं ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ के निधन के साथ एक युग का अंत हो गया। 1952 में क्वीन की ताजपोशी के वक्त भारत आजाद गणतंत्र हो चुका था। दुनिया दूसरे विश्व युद्ध के दंश से उबरने की कोशिश कर रही थी। पूरी दुनिया में उस ब्रिटिश साम्राज्य का अवसान हो रहा था जिसके बारे में कहते हैं कि उसका सूरज नहीं डूबता था। पूरी दुनिया में क्रांतिकारी बदलाव आ रहे थे। इतना ही नहीं, खुद ब्रिटेन में राजशाही पर सवाल उठने लगे थे। ऐसे में ब्रिटेन का गौरव वापस दिलाने के लिए महारानी एलिजाबेथ ने कॉमनवेल्थ देशों का दौरा करने का फैसला किया। वे ब्रिटेन की पहली महारानी थीं जो ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के दौरे पर गईं। उन्होंने अपने संयम, दृढ़ निश्चय और सूझ-बूझ से ब्रिटेन के राजपरिवार में लोगों का भरोसा बनाए रखा। ब्रिटेन के अलावा वे ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और कनाडा समेत उन 15 देशों की भी महारानी थीं, जो आजाद तो हो चुके हैं लेकिन ब्रिटिश राजशाही की छत्रछाया में ही हैं। जैसे-जैसे ब्रिटेन से दूसरे देश आजाद हो रहे थे, महारानी का कॉमनवेल्थ के प्रति लगाव बढ़ रहा था। कुछ लोगों को यह भी लग रहा था कि ब्रिटिश कॉमनवेल्थ को यूरोपीय आर्थिक समुदाय के बरक्स खड़ा किया जा सकता है।

ब्रिटिश राजशाही के नियमों के अनुसार एलिजाबेथ ब्रिटेन की रानी बनेंगी इसकी संभावना नहीं थी, लेकिन होनी को कुछ और ही मंजूर था। उनके पिता के बड़े भाई डेविड, जॉर्ज पंचम के उत्तराधिकारी थे जो उनकी मृत्यु के बाद एडवर्ड अष्टम के नाम से राजा बने। एडवर्ड ने जीवनसाथी के तौर पर अमेरिकी महिला वैलिस सिंपसन को चुना। सिंपसन दो बार की तलाकशुदा थीं और उनका ब्रिटेन में बहुत विरोध था। इस वजह से एडवर्ड अष्टम ने गद्दी छोड़ दी और एलिजाबेथ के पिता किंग जॉर्ज षष्टम के नाम से गद्दी पर बैठे। उनकी अचानक मृत्यु के बाद 1952 में एलिजाबेथ ब्रिटेन की महारानी बनीं। जिस वक्त एलिजाबेथ अपने पति के साथ विदेश दौरे पर थीं तब उनके पिता के मौत की खबर आई। उस वक्त वे कीनिया में थीं। उनके लौटने पर आनन-फानन में उन्हें महारानी घोषित कर दिया गया। एलिजाबेथ ब्रिटिश महारानी के तौर पर पिछले 70 साल से पूरी दुनिया में हो रहे बदलाव का गवाह बनीं। महारानी के तौर पर उनकी चुनौतियां ताजपोशी के बाद लगातार बढ़ती गईं, लेकिन उन्होंने चुनौतियों का डटकर सामना किया और अपनी जिम्मेदारी निभाई। वे पहली ब्रिटिश शासक थीं जो भारत के आजाद होने के बाद गद्दी पर बैठीं। बावजूद इसके जब वे पहली बार 1961 में भारत दौरे पर आईं तो दिल्ली में उनको देखने आने वालों की भारी संख्या थी। तब के अखबारों की रिपोर्ट के अनुसार दस लाख से ज्यादा लोग दिल्ली एयरपोर्ट से राष्ट्रपति भवन के बीच उनके दीदार के लिए कतार में खड़े थे।

1991 के खाड़ी युद्ध के बाद उन्होंने अमेरिका का दौरा किया। रंगभेद के खात्मे के बाद 1995 में उन्होंने दक्षिण अफ्रीका का दौरा किया। मई 2011 में महारानी एलिजाबेथ आयरलैंड का दौरा करने वाली ब्रिटेन की पहली महारानी बनीं। उनके शासन का एक और मुश्किल साल 2014 रहा जब स्कॉटलैंड में ब्रिटेन से अलग होने के लिए रायशुमारी कराई गई। महारानी ने हमेशा ब्रिटेन की एकता का समर्थन किया था। वे नहीं चाहती थीं कि स्कॉटलैंड ब्रिटेन से अलग हो। जनमत संग्रह से पहले महारानी ने बालमोरल कासल से बाहर लोगों से अपील की कि वे सोच-समझ कर फैसला लें। शायद जनता ने उनके दिल की बात सुनी और स्कॉटलैंड के अलगाव के प्रस्ताव को पर्याप्त समर्थन नहीं मिला।

एलिजाबेथ द्वितीय के निधन के बाद ये सब बातें अब इतिहास का हिस्सा हो गई हैं। ब्रिटिश क्वीन का निधन ऐसे वक्त हुआ है जब चंद दिनों पहले उन्होंने अपने कार्यकाल के 15वें और ब्रिटेन की तीसरी महिला प्रधानमंत्री के तौर पर उन्हीं लिज ट्रस को शपथ दिलाई जो कंजरवेटिव पार्टी में आने से पहले राजशाही का खुलकर विरोध करती रही हैं।

रूस और यूक्रेन के बीच पिछले आठ महीने से चल रहे युद्ध का असर ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था पर भी पड़ा है। यहां इस वक्त पिछले 45 साल में सबसे ज्यादा महंगाई है। ब्रिटेन की गद्दी पर सबसे ज्यादा 70 साल तक बैठने वाली क्वीन एलिजाबेथ द्वितीय के बेटे चार्ल्स अब किंग चार्ल्स तृतीय के नाम से गद्दी पर विराजमान हुए हैं। जब एलिजाबेथ क्वीन बनी थीं तब उनको शासन का अनुभव नहीं था। पिता के साथ रहकर उन्होंने थोड़ा बहुत सीखा था, लेकिन किंग चार्ल्स के साथ अलग कहानी है। 73 साल के चार्ल्स ने अपने होश संभालने से लेकर अब तक एक महारानी को संयम के साथ शासन करते देखा है। उन्होंने 15 प्रधानमंत्रियों का दौर भी देखा है। चार्ल्स दुनिया भर की यात्रा कर चुके हैं। प्रिंस के तौर पर भी वे काफी लोकप्रिय रहे हैं। इस उम्र में राजा बनने वालों में किंग चार्ल्स शायद इकलौते होंगे। उनका अनुभव शासन करने में उनकी मदद करेगा या उनके हरफनमौला विचार और व्यवहार राजा बनने के बाद उनके लिए कठिनाइयां पैदा करेंगे यह देखने लायक होगा। इस पर अब पूरी दुनिया की नजर है।

प्रिंस के तौर पर चार्ल्स राजनीतिक-सामाजिक मुद्दों पर खुलकर अपने विचार रखते आए हैं, जो निश्चित तौर पर वे अब नहीं कर पाएंगे। किंग घोषित किए जाने के बाद बकिंघम पैलेस पहुंचने के पहले ही दिन उन्होंने जिस तरीके से मेन गेट पर गाड़ी के उतरकर लोगों से मुलाकात की, वह उन्हें राजा कम बल्कि ब्रिटेन का सर्वमान्य नेता ज्यादा साबित कर रहा था। जैसा कि सब जानते हैं ब्रिटेन एक संवैधानिक राजतंत्र है। तकरीबन 400 साल पहले राजशाही खत्म करने की एक बार कोशिश की जा चुकी है। किंग चार्ल्स प्रथम और संसद के बीच ताकत को लेकर बहस हुई, चार्ल्स प्रथम उसमें हार गए और उनको मार दिया गया। गणतंत्र महज 11 साल में खत्म हो गया और संवैधानिक राजशाही की फिर वापसी हो गई। तब से यह निरंतर जारी है। अब ब्रिटेन का समुदाय खुद इस सिस्टम में अपने आप को ज्यादा सुरक्षित महसूस करता है।

महारानी के निधन के बाद प्रिंस चार्ल्स अब नए किंग हैं

अब बड़ा सवाल यह होगा कि तकरीबन तीन पीढ़ियां एक ही रानी के संरक्षण में खुद को सुरक्षित महसूस कर रही थीं, ऐसे में नए राजा किंग चार्ल्स तृतीय का शासन कैसा रहेगा। वैश्विक स्तर पर कई राजनीतिक और सामाजिक मसलों पर अपनी बेबाक राय रखने वाले प्रिंस चार्ल्स ने दुनिया भर में अपनी स्पष्टवादी छवि बनाई है। ब्रिटेन की संवैधानिक राजशाही से जुड़े कानून और परंपराएं राजघराने के प्रमुख को दलगत राजनीति से दूर रहने के लिए कहती हैं लेकिन चार्ल्स युवावस्था से ही उन मुद्दों पर खुलकर अपनी राय रखते रहे हैं जो उन्हें महत्वपूर्ण लगते हैं। खासतौर से पर्यावरण से जुड़े मुद्दे उनके पसंदीदा हैं।

किंग घोषित होने के बाद अपने पहले बयान में उन्होंने साफ किया है कि वे ताज की गरिमा और महत्व को समझते हैं। अब वे वैसे नहीं रह पाएंगे जैसे पहले रहा करते थे। संभव है उनका यह बयान उस ब्रिटिश जनता को थोड़ी राहत दे जो राजशाही में विश्वास रखते हैं, लेकिन ये बातें उनके लिए थोड़ी मुश्किल पैदा कर सकती हैं जो यह मान कर चल रहे होंगे कि चार्ल्स शायद अपनी मां की तरह शासन करने में यकीन नहीं रखेंगे। निश्चित तौर पर ब्रिटेन अभी राजनीतिक उथल-पुथल के दौर से गुजर रहा है। दो साल बाद यहां आम चुनाव होने हैं। आपसी विवाद की वजह से टोरी सरकार की संभावनाएं धूमिल हो रही हैं। साथ ही महंगाई और कोविड के बाद की परिस्थतियों ने देश की अर्थव्यवस्था पर गहरी चोट की है। ऐसे में आने वाले कुछ साल ब्रिटेन के भविष्य के लिए बहुत महत्वपूर्ण होने वाले हैं।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं)

आउटलुक से साभार

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