अनुरंजन झा
भारतीय अर्थव्यवस्था की चर्चा इऩ दिनों फिर से पूरी दुनिया में होने लगी है, पिछले दिनों जैसे ही आईएमएफ ( अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष) ने वित्तीय आंकड़े जारी किए और ये बताया कि भारत एक बार फिर दुनिया की पांचवी बड़ी अर्थव्यस्था बन चुका है और उसने 2019 के बाद दोबारा ब्रिटेन को एक कदम पीछे छोड़ दिया है, सबकी निगाहें भारत और ब्रिटेन की तुलना पर जा टिकी। श्रीलंका के आर्थिक संकट के बाद दबी जुबान भारत पर भी सवाल उठने लगे थे लेकिन यहां तो आर्थिक प्रगति ने एक दूसरी कहानी कहनी शुरू कर दी है। जाहिर है कि देश को सुदृढ़ और मजबूत करने के लिए अर्थव्यवस्था का मजबूत होना ही सबसे ज्यादा जरूरी होता है। जब कोविड के बाद पूरी दुनिया में एक तरह की मंदी देखी जा रही है वैसे में आर्थिक मोर्चे पर भारत की प्रगति निस्संदेह तारीफ के काबिल है। अब जब भारत अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर ब्रिटेन से आगे है तो कई ऐसे पहलू हैं जिस पर निगाह चली जाती है। जिस देश ने भारत पर 200 साल से ज्यादा समय तक शासन किया हो उससे उसकी तुलना होने लगे तो निश्चित तौर इसे भारत की तरक्की से जोड़ कर ही देखा जाना चाहिए।
ब्रिटेन में इन दिनों राजनीतिक उठापटक का दौर है, देश को नया प्रधानमंत्री मिल रहा है जिनके कंधे पर अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने की सबसे बड़ी जिम्मेदारी है। बोरिस जॉनसन के कार्यकाल में अप्रैल 2022 में ब्रिटेन में एनर्जी (बिजली और गैस) के दाम में 35-50 फीसदी की बढ़ोतरी की गई थी जिससे आमलोगों पर भारी बोझ बढ़ा था। बाद में सरकार ने काउंसिल टैक्स में छूट देकर अचानक बढ़े बोझ को कुछ कम करने की कोशिश की लेकिन जब तक लोगों को राहत मिल पाता देश में राजनीतिक अस्थिरता का दौर आ गया। अब एक तरफ देश को नया प्रधानमंत्री मिल रहा है वहीं दूसरी तरफ ब्रिटेन के लोग महंगाई और जीवनयापन के खर्चे में हुई बढ़ोतरी की वजह से इतने परेशान हो चुके हैं कि देश के अलग अलग हिस्सों में “इनफ इज इनफ” यानी अब बहुत हो चुका जैसे कैंपेन चलाए जा रहे हैं। इस कैंपेन के केंद्र में है ब्रिटेन के स्कूलों में मिड डे मील योजना। महंगाई के कारण ब्रिटेन के कई स्कूलों ने बच्चों को मुफ्त खाना देने से इनकार कर दिया है। अगर हम इसी योजना की भारत के मिड डे मील योजना से तुलना करें तो कई बातें साफ हो जाती हैं, जहां एक तरफ ब्रिटेन जैसा समृद्धशाली देश अपने स्कूली बच्चों को खाना देने में आनाकनी करने लगा है वहीं भारत में ब्रिटेन की पूरी आबादी के दोगुना बराबर बच्चों को स्कूलों में हर रोज मुफ्त खाना दिया जाता है। भारत की सरकार ने मिड डे मील योजना को सफल रखने के लिए हर संभव प्रयास किए हैं और इसके लिए सासंदो को भोजन में दी जाने वाली सब्सिडी बंद कर दी गई है। भारत की संसद में इस सब्सिडी को खत्म करके सालाना 10 करोड़ से ज्यादा रुपए बचाए जा रहे हैं, लेकिन ब्रिटेन के आंकड़े बताते हैं कि वहां के सांसद अपने खाने पर मोटी सब्सिडी लेते हैं। इतना ही नहीं ब्रिटिश अखबार मिरर यूके में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार ब्रिटिश सांसदो ने पिछले 6 सालों में 12 लाख किलो से ज्यादा का भोजन फेंक दिया है और वो भी तब जब देश के तकरीबन 20 लाख लोगों को इन दिनों में दोनों वक्त का खाना नसीब नहीं हो पाया है।
दरअसल ब्रिटेन में ये योजना पहली बार तब लागू किया गया था जब भारत आजाद हुआ था यानी 1947 में। फिर बीच बीच में इसे रोका जाता रहा और अस्सी के दशक में ब्रिटिश स्कूलों में मिड डे मील योजना की विधिवत शुरुआत की गई थी, लेकिन भोजन के नाम पर चिप्स और जंक फूट दिए जाने लगे। समय समय पर उसका विरोध होता रहा लेकिन योजना चलती रही। 2005 के आम चुनाव में में यह एक बड़ा मुद्दा बना और उसके बाद इस योजना में काफी सुधार दिखाई देना लगा। कोविड के दौरान योजना स्थगित रही लेकिन उसके बाद जब स्कूल खुले तो फिर ये उस तरह से सुचारू रुप से नहीं चल पाया जैसे इसे चलना चाहिए। फिर जब कई स्कूलों ने इसके बदले पैसे मांगने शुरु किए तो लोगों का विरोध सड़क पर आ गया। कोरोना काल में सबसे पहले तत्कालीन ब्रिटिश चांसलर (वित्त मंत्री) ऋषि सुनक ने इस योजना का विरोध किया था, आमतौर पर मददगार छवि के सुनक के इस कदम पर उनके इलाके का एक रेस्तरां तो इतना नाराज हुआ कि उसने सुनक को आजीवन प्रतिबंधित करने की घोषणा तक कर दी।
जर्मनी से अठारहवीं शताब्दी के आखिरी दशक में शुरु हुई ये योजना आज के तारीख में कई देशों की शिक्षा नीति का मुख्य अंग है। ऐसे में ब्रिटेन जैसे शक्तिशाली देश में अचानक से कुछ स्कूलों में इस योजना को बंद करने का विरोध होना लाजिमी है। लेकिन उससे ज्यादा जरूरी है इस योजना की जरूरत को समझना और इसे लागू करने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति होना। तमाम विरोधाभासों और बाधाओं के बावजूद भारत में ये योजना दशकों से सुचारू रुप से चल रही है। इस योजना की चर्चा हमने इसलिए किया क्यूंकि जब भी किसी देश की अर्थव्यस्था में सुधार की बात होती है तो सबसे पहले नजर उन योजनाओँ पर जाती है जिसमें आमलोगो को सुविधाएं मुफ्त मुहैया कराई जा रही हों। भारत में इन दिनों सदन से लेकर अदालत तक रेवड़ी कल्चर पर चर्चा कर रहा है। तो क्या स्कूलों में बच्चों को मुफ्त खाना देना रेवड़ी कल्चर के अतंर्गत आता है, और क्या ब्रिटेन में ऐसा ही मान कर स्कूलों ने ये योजना बंद करने का प्रयास किया है और सरकार खामोश है। इस मामले से पर्दा जल्द ही उठेगा जब नए प्रधानमंत्री का सुचारू रुप से कार्यकाल शुरु होगा और नए वित्त मंत्री को ऐसी तमाम योजनाओँ को सिरे एक बार फिर समझना होगा। ऐसे में इतना तो तय है कि मिड डे मील जैसी योजनाओं को समझने के लिए ब्रिटेन के पास भारत जैसा मजबूत उदाहरण है जहां रेवड़ी कल्चर पर अक्सर चर्चा होती है लेकिन कोई भी मिड डे मील योजना को उस खांचे में नहीं रखता क्यूंकि राजनेता से लेकर जनता तक और नौकशाहों से लेकर अदालत तक सबको अहसास है कि दो जून की रोटी की जद्दोजहद कर रही अवाम के घरों से बच्चों को अगर शिक्षा के लिए प्रेरित करना है तो उन्हें इस तरह की सुविधा मुहैया करानी होगी और ब्रिटेन में इस योजना के ठीक से नहीं चल पाने का हो रहा कड़ा विरोध ये भी साबित करता है कि देश की आर्थिक स्थिति को बेहतर करने के लिए और प्रयास किए जाने की जरूरत है।
(लेखक इन दिनों में इंग्लैंड में रहकर भारत-यूरोप संबंघों पर शोधरत हैं)