ICU नहीं “कोमा” में है पत्रकारिता

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मुजफ्फरपुर में असमय काल के गाल में समाने वाले बच्चों की तादाद बढ़ती जा रही है। पिछले पच्चीस सालों से चली आ रही एक रहस्यमय बीमारी और पिछले 10 सालों से उसके घोर कहर ने इलाके के सैकड़ों परिवारों की जिंदगी में हमेशा के लिए एक अंधेरा छोड़ दिया है। लेकिन इस बीमारी से मौत के आगोश में समा रहे बच्चों के बीच एक और चीज जो सबसे बुरी हुई है वो है भारतीय टेलीविजन न्यूज मीडिया का ICU में चले जाना। दरअसल यह टीवी पत्रकारिता का वो काल है जब पत्रकारिता ICU के सहारे कोमा में चली गई ।

बेशर्मी की पराकाष्ठा

मुजफ्फरपुर में पिछले दिनों दो पत्रकारों के बेजार और बदहवास अस्पताल के ICU से रिपोर्टिंग करने पर मीडिया के साथ साथ सोशल मीडिया और बुद्धिजीवी जनमानस भी दो टुकड़ों में बंट गया। कुछ को लगता है कि ICU के अंदर से की जाने वाली रिपोर्टिंग सर्वथा अनुचित है तो कुछ को लगता है कि अगर वो ICU में नहीं जाते तो सरकार और प्रशासन की नींद नहीं खुलती। तो सबसे पहले कुछ बातों को स्पष्ट तौर पर समझिए कि मीडिया का काम आप तक खबरें पहुंचाना है, खबरों की तह तक जाना है न कि एक्टिविस्ट हो जाना अब आप कह सकते हैं कि यह मामला बहुत संजीदा है और अगर कोई एक्टिविस्ट हो ही गया तो क्या गुनाह है, तो जानिए कि एक दूसरे से ज्यादा संवेदनशील दिखने की होड़ दरअसल पत्रकारिता नहीं है, यह एक खालिस चेहरा चमकाने की और अपने को बेहतर साबित करने की होड़ है। जिसके सहारे वो खबरों को बेचकर बाजार से पैसा इकट्ठा करते हैं ताकि उस पैसे से दिल्ली के डिस्को में शनिवार और रविवार की शाम गुलजार कर सकें। उनका आपके बीमार बच्चों से नहीं अपने बीमार पत्रकारिता को कोमा से निकालने की कवायद भर है। एक तरफ जहां मुजफ्फरपुर में बच्चों की लगातार हो रही हृदयविदारक मौतों ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया है। चीत्कार और दृश्य ऐसे हैं जिन्हें आप सामान्य मन:स्थिति में देखना कतई पसंद नहीं करेंगे। वहां ICU में काम कर रहे डॉक्टर को रोककर उसपर सवालों के बौछार कर देना और उससे यह पूछना कि आप कहां जा रहे हैं निस्संदेह पेशेवर पत्रकारिता नहीं और एक्टिविज्म तो कतई नहीं ।  जब आपने अपनी आंखों से देखा हो कि आपके सामने किसी बच्चे की सांसे थम गई हैं तो डॉक्टरों को काम करने से रोकना और बेतुके सवाल करना जिसका जवाब आपको पहले से मालूम है कि वो कतई नहीं दे सकता बेशर्मी की पराकाष्ठा है।

चेहरा चमकाने की होड़

अपना चेहरा चमकाने और लोगों की नजर में एक एक्टिविस्ट पत्रकार दिखने की होड़ में मुजफ्फरपुर के ICU में जो दो “बड़े” पत्रकारों ने किया निश्चित तौर पर वो निंदनीय है, जिनको यह लगता है कि उनके वहां जाने से सरकार जागी, उनके वहां जाने से प्रशासन जागा तो उनकी जानकारी के लिए बता देँ जब तक पचास बच्चों की मौत हो गई तब तक सिर्फ डिजिटल मीडिया और स्थानीय मीडिया ही जागा था। सबसे पहले, सबसे तेज और सबसे आगे का दावा करने वाला इन मौतों को महज स्पीड न्यूज तक सीमित रखे हुआ था। मुजफ्फरपुर और मोतिहारी से नियमित खबर भेजनेवाले स्ट्रिंगर ने ये रोना हमसे भी रोया।

किसको मानें आदर्श ?

हां इस बीच टीवी 9 भारतवर्ष जरूर अपने प्राइमटाइम में इसको जगह दे चुका था। मुहिम खबरों से बनती है, वो बनाने के लिए इन दोनों पत्रकारों को वहां ICU में दाखिल होने की कोई जरूरत नहीं थी। पहले पहुंचे पत्रकार यूं हीं नहीं पहुंच गए थे, केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री के जाने का कार्यक्रम तय हो चुका था तब इऩको भी ख्याल आया कि वहां जाया जाए जबकि उनका वहां का रिपोर्टर बेबाक खबरें दे रहा था। सबसे तेज की पत्रकार तब पहुंची जब बच्चों की मौत का आंकड़ा 100 पार कर गया तो आखिर किस मुंह से आप सूबे के मुखिया से पूछेंगे कि आप क्यूं देर से आए ? इन दो पत्रकारों के ICU में दाखिल होने से दूसरे पत्रकारों को भी मेडिकल टूरिज्म का मौका मिला और वो भी इनके ही नक्शेकदम पर वहां दाखिल हो गए। ICU में दाखिल होना कितना गैरकानूनी है उस मुद्दे पर हम चर्चा नहीं करेंगे नहीं तो मामला थोड़ा लंबा हो जाएगा लेकिन इतना तो जानिए कि इन दो “बड़े” पत्रकारों को अपना आदर्श मानने वालों ने सोशल मीडिया पर उनके पक्ष में मुहिम चलाने की कोशिश की तो यह भी समझिए कि उनका समर्थन करने वालों में ज्यादातर वो लोग थे जो या तो उनके संस्थानों में या उनके मातहत काम कर रहे हैं या फिर कर चुके हैं और भविष्य की संभावनाओं को देखते हुए उनका विरोध करने की जहमत नहीं उठा पाते।

ऐसे नहीं होती पत्रकारिता

एक तरफ वहां दवाइयों और डॉक्टरों की कमी है, किसी भी पल किसी बच्चे की जान जा सकती है हालात इतने भयावह हैं वैसी स्थिति में उन डॉक्टरों को रोककर सवाल जवाब करना जो लगातार कई घंटों से दिन-रात की परवाह किए बिना अपना काम कर रहा है किस किस्म की पत्रकारिता है। जिन नौजवानों को इनमें आदर्श दिखता है उनके लिए हम स्पष्ट करना चाहते हैं कि टेलीविजन पर चेहरा चमकाना पत्रकारिता नहीं होती है दोस्त, उसके लिए जमीन की खाक छाननी पड़ती है, गूगल से निकाली अधकचरी सूचनाएँ खबर नहीं होतीं, कागजों के बंडल में सिर खपाना होता है। यू ट्यूब का वीडियो आखिरी सच नहीं होता उसके लिए हालात का इतिहास जानना होता है। किसी भी पत्रकार को अपना आदर्श मानने से पहले एक बार जरूर पूछना कि उनके जीवन की ऐसी कौन सी खबर है जिसपर उनको और देश को नाज करना चाहिए।

सवाल किससे पूछा जाए

आपको मालूम होना चाहिए कि बिहार के निकम्मे और बेशर्म स्वास्थ्य मंत्री ने पहले कोशिश की केंद्रीय मंत्री को वहां जाना नहीं पड़े और पहले तय हुए कार्यक्रम को दिल्ली में ही मिलकर निपटाने की कोशिश की। लेकिन अगले दिन जब हालात और बिगड़े तब डॉ. हर्षवर्धन ने वहां जाने का फैसला किया। निश्चित तौर पर उनसे सवाल पूछे जाने चाहिए थे लेकिन साथ ही यहां दिल्ली में पिछले चार साल तक स्वास्थ्य मंत्री रहे जे पी नड्डा से भी पूछा जाना चाहिए कि जब 2014 में डॉ.हर्षवर्धन ने मुजफ्फरपुर की इस बीमारी की जांच और वहां के अस्पताल में अलग से 100 बेड का वार्ड बनाने की बात की थी तो उसपर काम आगे क्यूं नहीं हुआ जिसे 2019 में हर्षवर्धन को फिर दोहराना पड़ा।  सूबे के मुखिया से पूछा जाना चाहिए कि 13 साल की उनकी सरकार में स्वास्थ्य सेवाओँ की इस कदर तेरहवीं क्यों हो गई कि गांव के गांव में महीनों ठीक से चूल्हा नहीं जलेगा।लेकिन ये भी क्या करें उन नेताओं की चमड़ी कितनी मोटी है यह तो अगले दिन औऱ साफ हो गया जब सूबे दूसरे नंबरदार दूसरे मोदी यानी सुशील मोदी ने राज्य के व्यापारिक हालात पर प्रेस कांफ्रेंस तो की लेकिन मुजफ्फरपुर की बदहाल स्थिति पर सवालों के जवाब देने के बजाए लिफ्ट के दरवाजे पर मौन साधे खड़े रहे। जो माइक ICU में डॉक्टरों के मुंह में घुसाया जा रहा था उसे इनके नाक में देना चाहिए था क्योंकि जिम्मेदारी इनकी ही बनती है।

TRP जो न कराए 

आखिर इन दोनों पत्रकारों ने यह जहमत क्यूं नहीं उठाई कि मुजफ्फरपुर से लौटकर पटना में डेरा डालें और जिम्मेदार से जवाब मांगे और जवाबदेही तय कराएं लेकिन उनको फिर दिल्ली उड़ आना था क्योंकि ज्यादा प्राइम टाइम से दूर रहे तो चेहरे की रंगत उतर जाएगी। दरअसल रंगत उतरेगी नहीं असलियत बाहर आ जाएगी। दरअसल आम लोगों को समझना होगा कि ये ICU में यूं ही नहीं गए, ये ICU के जरिए कोमा में सांस ले रही पत्रकारिता को बाहर निकालने की कोशिशों में जुटे हैं। एक दौर की घुटती पत्रकारिता को अन्ना के आंदोलन ने खबरों पर लौटने के मजबूर किया और इस दौर की चाटुकारिता से बचने के लिए रास्ते तलाशते इन पत्रकारों को बच्चों की जान में पत्रकारिता अंतिम सांस लेती दिखी तो दौड़ पड़े उस ओर लेकिन ये फिर चूक गए क्योंंकि तरीके ठीक नहीं थे। जब आप सिर्फ बाजार यानी TRP के लिए खबरों की ओर लौटने की कोशिश करेंगे तो यही गलतियां होंगी।

इनकी हालत और रिपोर्टिंग देखने के बाद, और उनके इस कृत्य का समर्थन करने वालों के चेहरे देखने के बाद हमने ईश्वर से इतना ही कहा कि हे ईश्वर इतना लालच और इतना डर कभी न देना कि गलत को गलत नहीं कह सकूं । नमस्कार

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