चलते रहने का संदेश देता है चरखा

ICU नहीं “कोमा” में है पत्रकारिता
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हौसला देते दादीमां के शब्द
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चरखा डायलॉग । चरखा संवाद । चरखा का जिक्र आते ही चरखे के साथ जिस एक व्यक्ति की छवि उभरती है वो है गांधी । गांधी ! जबरदस्त ताकत है इस नाम में, पता नहीं आपलोगों को होता है या नहीं लेकिन जब जब हम दिल से एक बार पूरी ईमानदारी से गांधी का नाम लेते हैं तो पूरे शरीर में सिहरन पैदा होती है। गांधी के बारे में बहुत कुछ लिखा गया है, बहुत कुछ लिखा जाएगा। बहुत कुछ समझा गया है बहुत कुछ समझाया जाएगा। इसलिए गांधी के पहलुओं को एक लेख या एक किताब में समेटना कतई संभव नहीं है। हम आज दो बातें करते हैं, एक इस “चरखा संवाद” का ख्याल कैसे आया और दूसरी बात यह कि गांधी का “चरखा” हमें क्या संदेश देता है, हमारी नजर में क्या है ?  गांधी पर जब जब बात होती है, कोई आयोजन होता है तो ऐसे में गांधी पर थोड़ी बात करने का लोभ हम भी नहीं रोक पाते हैं। बतौर पत्रकार सबसे पहले हम गांधी को हमेशा एक सफल पत्रकार पाते हैं, सफल सिर्फ चर्चा या फिर अपने  उद्देश्य को लेकर ही नहीं बल्कि सफल, लाभ के मामले में भी। लिहाजा गांधी एक सफलतम पत्रकार थे। उनका संचार कौशल इतना प्रभावशाली था कि वो अपनी सोच के हिसाब से लोगों को मना लेते थे। गांधी ने ट्रस्टीशिप सिद्धांत के जरिए भी कहा कि शक्ति संपन्न लोगों पर जिम्मेदारी है कि वे समुदाय के संरक्षक की तरह सामुदायिक कल्याण के लिए कार्य करें। यह उस वक्त भी एक बेहतर विकल्प था और आज भी मुफीद है  क्योंकि समय के साथ निरपेक्ष विचारधाराएं आक्रामक हो जाती है। उन्होंने जितने भी अखबार चलाए वे सब लाभ में चले जबकि उन्होंने कभी उसके लिए विज्ञापन नहीं लिया। तभी तो चंपारण सत्याग्रह में व्यस्त गांधी को दक्षिण अफ्रीका से उनके पुत्र ने यह चिट्ठी लिखी कि बापू, अखबार चलाना मुश्किल हो रहा है, यहां के एक स्थानीय व्यवसायी विज्ञापन देना चाहते हैं सोचता हूं कि ले लूं ताकि कुछ पैसे आ सकें और इस अखबार को चलाया जा सके। बापू ने जवाबी चिट्ठी में साफ साफ लिखा कि किसी व्यवसायी के विज्ञापन छापकर अखबार चलाने से बेहतर है तुम अखबार बंद कर दो क्योंकि तुम यह नहीं जानते कि आने वाले दिनों में उस व्यवसायी के लिए तुम्हें क्या क्या समझौता करना पड़ेगा। गाँधी के इन शब्दों को आज के दौर में सिर्फ एक बार सुबह सुबह पत्रकार पढ़ लिया करें तो समाज और देश का भला हो जाएगा। फिर जब गांधी यह कहते हैं कि पत्रकारिता जीवन यापन का साधन नहीं हो सकता, वो मानते थे कि पत्रकारिता जीविका का जरिया नहीं बल्कि समाजसेवा का माध्यम है इसलिए उन्होंने इसे अपनी जीविका नहीं बनाया। तो अपने गिरेबान में झांकने का वक्त आता है और सिहरन तेज हो जाती है।

गांधी का चरखा सबसे पहली सीख लगातार आगे बढ़ते रहने की देता है, गांधी का चरखा समाज में लगातार हो रहे बदलावों के चक्र को बताता है। चरखा व्‍यापारिक युद्ध की नहीं, व्‍यापारिक शांति की निशानी है। उसका संदेश संसार के राष्‍ट्रों के लिए दुर्भाव का नहीं, परंतु सद्भाव का और स्‍वावलंबन का है। चरखा सतत विकास की प्रकिया का द्योतक है गांधी ने चरखा के बारे में साफ कहा कि उसे संसार की शांति के लिए खतरा बनने वाली या उसके साधनों का शोषण करने वाली किसी ताकत के संरक्षण की जरूरत नहीं होगी, परंतु उसे जरूरत होगी ऐसे लाखों लोगों के  निश्‍चय की, जो अपने-अपने घरों में उसी तरह सूत कात लें जैसे आज वे अपने-अपने घरों में भोजन बना लेते हैं। इसका मतलब साफ है कि गांधी का चरखा नियमित और निश्चित रोजगार की बात करता है जिसकी सबसे ज्यादा जरूरत आज के दौर में महसूस की जा रही है। गांधी अपनी चर्चा में एक जगह कहते हैं मैंने करने के काम न करके ऐसी अनेक भूल की हैं, जिनके लिए मैं भावी पीढ़ी का शाप भाजन बन सकता हूँ। मगर मुझे विश्‍वास है कि चरखे का पुनरुद्धार सुझाकर तो मैं उनके आशीर्वाद का ही अधिकारी बना हूँ। मैंने उस पर सारी बाजी लगा दी हैं, क्‍योंकि चरखे के हर तार में शांति, सद्भाव और प्रेम की भावना भरी है और चूँकि चरखे को छोड़ देने से हिंदुस्‍तान गुलाम बना है, इसलिए चरखे के सब फलितार्थों के साथ उसके स्‍वेच्‍छापूर्ण पुनरुद्धार का अर्थ होगा हिंदुस्‍तान की स्‍वतंत्रता। अब गांधी के इस कथन को आज के समय की तराजू पर तौलिए बाजार के प्रभाव को आंकिए तो साफ दिखता है कि आज के दौर में स्वावलंबी होना भविष्य के लिए कितना जरूरी है। आज जहां सरकार की नीतियां स्टार्ट अप इंडिया और मेक इन इंडिया के जरिए विकास की बात करती है उसकी नींव गांधी ने सौ साल पहले देश में रख दी थी। गांधी का स्वदेशी होना मतलब स्वावलंबी होना है। स्वावलंबी होना बेहतर भविष्य की सबसे बड़ी जरूरत है, और गांधी का चरखा हमें स्पष्ट रुप से यही संदेश देता है।

गांधी के चरखे की भावना को समझते हुए यह खयाल आया कि देश और समाज की बेहतरी के लिए हम क्या आहूति दे सकते हैं। देश गांधी के 150 साल पूरे होने पर जश्न में डूबा है, निश्चित तौर पर जब गांधी को याद करने और उनकी सीख को समाज के हर तबके तक पहुंचाने की कोशिश में माननीय प्रधानमंत्री समेत पूरी सरकार हर संभव प्रयास में जुटी है तो वहां इसे जमीन पर उतारने के लिए कदम बढ़ाने की जररूत थी। चंपारण सत्याग्रह की शताब्दी वर्ष के पहले से लेकर महात्मा गांधी के विचार और स्वभाव पर कुछ पढ़ाई लिखाई चल रही है और जल्द ही पिछले पांच सालों की मेहनत “गंवई गाँधी” और “गांधी कथा” आप लोगों के सामने होगी। इसी दौरान चर्चा के बीच एक रोज इंडिया सीएसआर के संपादक अपरेश मिश्र को हमने देश के सबसे बड़े चरखे और गांधी पर दुनिया की सबसे बड़ी लाइब्रेरी बनाने के अपने सपने का जिक्र किया तो अपरेश मिश्र ने चरखा संवाद का प्रस्ताव रखा हमें यह आइडिया अच्छा लगा लेकिन हमारे सामने यह  प्रश्न खड़ा था कि संवाद के बाद क्या ? फिर अपरेश मिश्र और इंडिया सीएसआर के संस्थापक रुसेन कुमार से कई दौर की चर्चा और मेहनत के बाद हम इस नतीजे पर पहुंचे कि देश के अलग अलग हिस्सों में चरखा क्लस्टर निर्माण में अपना योगदान दिया जाए जिसके जरिए वहां के आस-पास पच्चीस-तीस किलोमीटर के रेंज के निवासियों के लिए वहां की स्थानीय ताकत का ख्याल रखते हुए उनके लिए रोजगार का निर्माण हो सके। इसी कोशिश में यह चरखा डायलॉग आपके सामने है। जल्द ही इसकी अगली कड़ी ब्रिटेन और दक्षिण अफ्रीका में आयोजित करने की योजना है।

निश्चित तौर पर काम कठिन है लेकिन एक पत्रकार की हैसियत से पत्रकार के तौर पर गांधी सामने दिखते हैं। फिर गौर करने पर कुछ कुछ समझ में आता है कि आखिर गांधी कैसे सफल हुए होंगे। गाँधी में पत्रकारिता के बीज इंग्लैंड में पढ़ाई के दौरान पड़े जब उन्होने अखबारों को पढ़ना शुरु किया। वो बीज कितने ताकतवर थे कि दक्षिण अफ्रीका पहुंचने के तीसरे दिन ही वो अपने लेख के कारण में चर्चा में आ गए थे जिसमें उन्होने अपने साथ अदालत में हुई बदसलूकी का वर्णन किया था। अपनी साथ हुई बदसलूकी की का जिक्र करके भी बात लोगों तक पहुंचाई जा सकती है अगर बात में सत्यता हो तो।

अंत में इतना ही कहना चाहूंगा कि गांधी ही रहेंगे क्योंकि वो थे इसलिए हम हैं। हम हैं इसलिए वो रहेंगे, वो रहेंगे तो और भी रहेंगे। गोडसे फाँसी चढ़ चुका है एक कालखंड की बात है फिर कोई नाम नहीं लेगा। क्योंकि तब लोगों की दिलचस्पी इसमें नहीं रहेगी कि गांधी को किसने मारा, लोग इसी से संतुष्ट होंगे कि गांधी कभी थे इसलिए वो हैं ! महात्मा बापू को नमन । चरखा चलता रहे ।

“गांधी के 150 साल होने पर भोर चैरिटेबल ट्रस्ट और इंडिया सीएसआर की ओर से आयोजित ‘चरखा डायलॉग’ की स्मारिका से साभार “

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