जब देश में किसी अदालत को यह कहना पड़े हमारा सिस्टम कैंसरग्रस्त हो गया है और ऐसे ही चलता रहा तो लोगों का सिस्टम से भरोसा उठ जाएगा, जब एक मां के सब्र का बांध आठ साल बाद टूट जाए और उसे लगने लगे कि हमारा सिस्टम तो दोषियों की ही सुनता है तो आप यकीन मानिए कि इस सिस्टम को सर्जरी की जरूरत है। साथ ही ऐसी सोच की सर्जरी भी लाजिमी है जो अपराध, घृणित अपराध और ऐसे करने वालों की मानसिकता को ठीक से समझ नहीं पाता। आपको दिल्ली हाईकोर्ट के इस बयान के बाद आसानी से अँदाजा लगा लेना चाहिए कि हम किस दौर में जी रहे हैं। हम अक्सर यह देखते हैं और महसूस करते हैं कि हमारा सिस्टम सड़ चुका है और उसकी आड़ में अपराधी अपने सारे तिकड़म लगाकर उससे बचने की कोशिश करते हैँ, सालों साल मामले अदालत में चलते हैं, अपराधी छूट जाते हैं और अक्सर ईमानदार और शोषित समाज इन पेचीदगियों के चंगुल में उलझ कर अपना वक्त-पैसा सबकुछ बरबाद करता रहता है। कोर्ट के इस बयान में कानून की कमियों की लाचारगी और न्याय के देवता की बेचारगी की भी झलक है। जब देश का हर नागरिक इस भरोसे अपनी जिंदगी गुजार रहा हो कि अगर उसके साथ अन्याय हुआ तो देश की अदालतें हमारे साथ होंगी और ऐसे में जब अदालत अपनी बेचारगी बयान करे तो क्या किया जाए।
कोर्ट का यह बयान आजाद हिंदुस्तान के इतिहास के उस केस से जुड़ा है जिसे देश की सौ करोड़ से ज्यादा की आबादी पिछले आठ साल से हर रोज देख सुन रही है और उससे जुड़े दर्द को महसूस भी कर रही है। यह देश की बेटी निर्भया के दोषियों और उनके वकीलों के तिकड़म और शासन, प्रशासन की गैरजिम्मेदाराना लापरवाही से जुड़ी है। आप इसे ऐसे समझिए कि दुनिया के सारे अपराध में शरीर पर चोट होती है लेकिन बलात्कार ऐसा घृणित अपराध है जिसमें पीड़ित की आत्मा पर चोट पहुंचती है। शरीर के दाग समय के साथ मिट जाते हैं लेकिन आत्मा पर हुआ प्रहार कभी नहीं मिटता। जमीन-जायदाद, लड़ाई-झगड़े और यहां तक की हत्या से जुड़ी दुश्मनी पीढ़ियों तक तो चलती हैं लेकिन समय के साथ वो भी मिट जाती हैं उनमें सुलह हो जाती है। लेकिन आप यह कल्पना भी नहीं कर सकते कि बलात्कार की पीडि़ता कोई लड़की, कोई औरत अपने बलात्कारियों को माफ कर दे या उससे प्यार और स्नेह रखने वाले उस अपराधी पर अपना प्यार न्यौछावर करने लगें। यह सड़े हुए सिस्टम की नतीजा ही है कि निर्भया के दोषी अलग अलग हथकंडे अपनाकर अपनी मुकर्रर मौत की सजा की तारीख बदलवाने में कामयाब हो रहे हैं और यह सिस्टम सड़ता कैसे है उस सोच की नुमाईश तब होती है जब देश की जानी मानी वकील इंदिरा जयसिंह घृणित बलात्कार और जघन्य हत्या के आरोपियों को माफ करने की सलाह दे डालती हैं और वो भी उस माँ को जो पिछले आठ साल से तिल तिल कर मर रही है, अगर वो जिंदा है तो महज इसलिए कि उसकी बेटी के साथ हुए नृशंस अत्याचार के बाद एक ऐसी नजीर बने कि देश में ऐसे अपराधों को अंजाम देने वाले डरें, भय उनमें फैले जो बलात्कार जैसा कुकर्म करते हैं उनमें न फैले जो उसके पीड़ित हैँ।
इंदिरा जयसिंह के बयान पर उनकी व्यक्तिगत आलोचना से ज्यादा जरूरी है इस सिस्टम और उसकी खामियों को समझना। आप सोचिए कि अगर इन दोषियों को साल दो साल पहले अगर हमारे देश का कानून उनके आखिरी अंजाम तक पहुंचा चुका होता तो न ही अदालत को ऐसी टिप्पणी करनी पड़ती और न हीं इंदिरा जयसिंह को बेवजह इस मामले में कूदने की जरूरत होती। इंदिरा जयसिंह तो अपने बयान के बाद देश के एक बड़े धड़े के निशाने पर आ गईँ, निर्भया की मां आशा देवी ने दो टूक उऩको मामले से दूर रहने के लिये कह दिया, सोशल मीडिया पर जमकर ट्रोल हुई और उनके साथ उनकी पति की वकालत का सही गलत कच्चा चिट्ठा सोशल मीडिया पर तैरने लगा। लेकिन इस बीच उनके बयान ने अदालत की टिप्पणी को और मजबूत कर दिया कि हमारा सिस्टम कैंसरग्रस्त है।
सिस्टम के खराब होने की तस्वीर तब और साफ होती है जब किसी भी अपराध में फांसी की सजा पाए दोषियों को बचाने के लिए फांसी की सजा की जरुरत पर ही सवाल उठने लगते हैं। एक तरफ देश की संसद यह कानून बनाने में जुटी रहती है कि बलात्कार जैसे अपराध में ज्यादा से ज्यादा सजा हो, 2018 में में संशोधित एक्ट में यह तय किया गया कि 12 साल से कम उम्र के बच्चियों के साथ ऐसे घृणित कुकर्म करने वालों को मौत की सजा दी जाएगी। जैसे ही कैबिनेट ने यह बिल पास किया मौत की सजा पर ही सवाल उठने लगे । मेरा व्यक्तिगत मानना है कि सजा चाहे जो हो लेकिन अगर न्याय की प्रक्रिया त्वरित नहीं होगी तो उस न्याय का कोई मतलब नहीं रह जाएगा। सिस्टम के फेल होने की ही बानगी थी कि हैदराबाद में डॉक्टर के साथ बलात्कार के चारों आरोपियों को पहले पुलिस ने गिरफ्तार किया और फिर उसे घटनास्थल पर ले गए जहां वो भागने की कोशिश करने लगे और उऩको मार गिराया गया (पुलिस वर्जन के अनुसार)। इस एनकाउंटर पर भी सवाल उठे लेकिन आँध्र-तेलंगाना समेत पूरे देश में जिस तरीके इस एनकाउंटर का जश्न मनाया गया, जिस तरीके से लोगों ने एनकाउंटर की जगह जाकर पुलिस वालों पर फूल बरसाए, वो निश्चित तौर पर न्याय व्यवस्था से उठ रहे भरोसे की बानगी थी।
हमने अपने दो दशक से ज्यादा के पत्रकारिता करियर के दौरान किसी आपराधिक मामले के लिए जिस तरह का हुजूम पूरे देश की सड़कों पर निर्भया के मामले में देखा वैसा न पहले देखा और न ही बाद में। (ईश्वर ने करे ऐसा घृणित कृत्य दोबारा हो कि फिर से लोगों को सड़क पर इकट्ठा होना पड़े) । लोगों के रोष, गुस्से और दुख से यह उम्मीद जगी की निश्चित तौर पर कम से कम बलात्कार के मामले में तो त्वरित कार्रवाई की प्रक्रिया जरूर शुरु होगी। और यह भी उम्मीद थी कि शायद एक एक कर ऐसे ही दूसरे अपराधों के फास्ट ट्रैक कोर्ट का प्रावधान शुरु हो। लेकिन ऐसा न हो न सका और यह इसलिए नहीं हो सका क्योंकि इन अपराधियों को बचाने के लिए देश में एक से बड़े एक और दिग्गज वकील जो भरे पड़े है। निश्चित तौर पर कानून की यह जिम्मेदारी यह है कि भले ही एक अपराधी छूट जाए लेकिन एक निर्दोष को सज़ा न हो लेकिन तब क्या हो जब अपराधी भी छूट जाए और निर्दोष पिस जाए तो ऐसे में इस कैंसरग्रस्त सिस्टम का इलाज कैसे हो।
आप सभी को 1993 के दिल्ली बम धमाके का मुख्य गुनहगार और देश को बांटने के लिए अलग खालिस्तान की मांग रखने वाला देविंदर सिंह भुल्लर तो याद ही होगा। देश की सुप्रीम अदालत ने फांसी की सजा सुनाए जाने के बाद आठ साल तक उसपर अमल नहीं होने को आधार बनाकर उसकी फांसी की सजा उम्रकैद में बदल दी। पिछले 7 साल में 7 ऐसे मामलों में सुप्रीम अदालत ने फांसी की सजा को उम्रकैद में बदल दिया है। अगर पिछले पच्चीस साल का आँकड़ा देखें तो पता चलता है कि 40 से ज्यादा ऐसे मामले हैं जिसमें ऐसा ही किया गया। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों से पता चलता है कि पिछले बीस साल में 2328 दोषियों को फांसी की सजा सुनाई गई जबकि महज 4 दोषी ही फंदे तक पहुंच सके हैं, कुछ की मौत हो गई, कुछ की सजा बदल गई और बाकियों के मामले अभी भी कानूनी पेचीदगियों में अटके हुए हैं। निश्चित तौर पर इस ओर समाज का ध्यान जाना चाहिए और एक बुलंद आवाज में सरकार और न्याय के मंदिर से गुजारिश होनी चाहिए कि न्याय में देरी हमारे भविष्य को चौपट कर देगी।
भले ही इंदिरा जयसिंह के बयान ने फांसी की सजा के औचित्य पर फिर से बहस छेड़ दी हो मगर हमारा फर्ज है कि हम न्याय में हो रही देरी की ओर देश, समाज, सरकार और न्याय व्यवस्था से जुड़े लोगों का ध्यान ले जाएँ। साथ ही अपराध से जुड़े किसी भी मामले पर राजनीति नहीं हो। एक तरफ आप फांसी की सजा पाए एक अपराधी के लिए आधी रात को सुप्रीम अदालत का दरवाजा खटखटाएँ, गैंगरेप में शामिल नाबालिग अपराधी उम्र का बहाना बनाकर छूट जाए और केजरीवाल जैसे नेता उसे 10 हजार रुपए और सिलाई मशीने देने पहुंचे, उसे मीडिया की सुर्खियां बनवाएँ और दूसरी तरफ सुप्रीम कोर्ट से फांसी की सजा मुकर्रर होने के बाद सरकार और जेल प्रशासन तब तक सोता रहे जब तक कि पीड़िता के सब्र का बांध न टूट जाए तो निश्चित तौर लगता है कि सिस्टम कैंसरग्रस्त हो चुका है। यह सिस्टम तब औऱ बोझ लगने लगता है जब अपराधियों की भी जाति और धर्म देखकर, वोट बैंक के हिसाब से राजनेता उनका लाभ उठाने को तत्पर दिखते हैं। निश्चित तौर पर यह समय इस बहस में पड़ने के लिए नहीं है कि फांसी की सजा होनी चाहिए कि नहीं बल्कि ऐसे वक्त में बार बार, हर मंच और मोर्चे से यह उठाने की है कि जस्टिस डिलेड इज जस्टिस डिनाएड।