JDU मजबूत सीटों की तलाश में जुटी, BJP के साथ होगी रस्साकशी

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एक दिन बाद दिल्ली में चुनाव है और पूरे देश की नजर इस चुनाव पर है लेकिन इसी बीच JDU ने बिहार में इसी साल अक्टूबर में होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए अपनी तैयारियों को तेजी दे दी है। पार्टी के कई आला नेताओं को पूरे प्रदेश से मजबूत सीट तलाशने के लिए कहा गया है। पवन वर्मा और प्रशांत किशोर के पार्टी से निकाले जाने के बाद यह कवायद और तेज कर दी गई है। गुरुवार को पार्टी के सीनियर लीडर्स की औचक बैठक के बाद इस दिशा में तेजी से काम करने का फैसला हुआ है और इसकी जिम्मेदारी प्रदेश की कमान संभाल रहे सीनियर पार्टी लीडर वशिष्ठ नारायण सिंह को दी गई है। वशिष्ठ नारायण सिंह आरसीपी सिंह के निर्देश पर पूरे काम को अंजाम दे रहे हैं।

RCP सिंह ने संभाली है कमान

पिछले कुछ समय से पार्टी में किनारे कर दिए गए RCP सिंह एक बार फिर पूरे जोश के साथ पार्टी के लिए सुरक्षित सीटों की तलाश में जुट गए हैँ। दिल्ली चुनाव में बीजेपी के साथ गठबंधन कर, अमित शाह के साथ मंच साझा कर और इसका विरोध करने पर प्रशांत किशोर को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाकर नीतीश कुमार ने यह संकेत तो दे ही दिया है कि विधानसभा चुनाव उनकी पार्टी बीजेपी के साथ मिलकर ही लड़ेगी। दूसरी तरफ CAA को समझाने के लिए बिहार में रैली कर अमित शाह ने भी उसी मंच से बिहार में नीतीश कुमार को गठबंधन का चेहरा बताकर अपनी दोस्ती के सबूत दे दिए हैं। ऐसे में अब गठबंधन को जीत दिलाने की जिम्मेदारी दोनों पार्टियों के नेताओं की है लेकिन राजनीति इतनी आसान होती कहां है। 2015 के विधानसभा चुनाव में विरोध में लड़ चुकी दोनों पार्टियों को अपनी कुछ सीटों की कुर्बानी देनी पड़ सकती है इसी सिलसिले में JDU ने बिहार में मजबूत सीटों की पहचान शुरू कर दी है। दिल्ली चुनाव के परिणाम का असर बिहार में इनकी दोस्ती पर भी पड़ेगा। दोस्ती टूटने की गुंजाइश नहीं है लेकिन बीजेपी के परफार्मेंस पर बिहार में उनकी ताकत का अंदाज लगाया जाएगा। हाल में हुए विधानसभा चुनाव में कई राज्यों में सत्ता गंवाने से बीजेपी की बारगेन पावर पहले से ही कम है और अब अगर दिल्ली में पूर्वांचली बहुल सीटों पर जीत हासिल नहीं हुई तो बिहार में जेडीयू एक बार फिर बड़े भाई की भूमिका में रहना चाहेगी और उसके लिए जिद भी करेगी। फिलहाल पार्टी ने अपने स्थानीय पदाधिकारियों और कार्यकर्ताओं से सीटों का नाम मांगा है। ना सिर्फ जिला अध्यक्ष और जिला प्रभारी बल्कि प्रखंड अध्यक्ष, पंचायत अध्यक्ष और बूथ अध्यक्ष तक से सभी 243 सीटों के बारे में राय मांगी गई है। JDU की नजर अपनी जीती हुई सीटों के अलावा बीजेपी के तकरीबन 20 मजबूत सीटों पर है जहां जातिगत समीकरण में पिछड़ा वर्ग और मुस्लिम समुदाय की अच्छी खासी भागीदारी है। दिल्ली चुनाव का परिणाम आते ही JDU भाजपा के कोटे की कुछ सीटों पर दावा करेगा।

2010 के फार्मूले पर खींचतान

2019 के लोकसभा चुनाव के वक्त जब बीजेपी और जेडीयू ने बिहार में बराबर की सीटें शेयर की तो राजनीतिक हलकों में यह चर्चा हुई कि जेडीयू को बीजेपी ने ज्यादा तवज्जो दे दिया। ऐतिहासिक जीत के जश्न में लोग भूल गए लेकिन जैसे जैसे बीजेपी का ग्राफ दूसरे राज्यों में तेजी से गिरा जेडीयू ने अपनी बारगेन की शर्तें फैलानी शुरु कर दी। अब नई चर्चा यह है कि पार्टी 2010 के फार्मूले पर चुनाव लड़ना चाहती है। 2010 में जेडीयू 141 सीटों पर चुनाव लड़कर 115 सीटों पर जीत हासिल की थी जबकि 100 सीट पर चुनाव लड़कर बीजेपी ने 91 सीटों पर कब्जा जमाया था। 2015 में JDU-RJD गठबंधन में बराबर की भागीदारी हुई और नीतीश की पार्टी को महज 71 सीटें हासिल हुई फिर भी चेहरा होने की वजह से 80 सीटों वाली RJD को बैकसीट से संतोष करना पड़ा। दो साल के भीतर ही क्या क्या हुआ सबने देखा।

वर्ष 2010 के विधानसभा चुनाव के आधार पर जदयू के खाते में ऐसी एक दर्जन से भी अधिक सीटें हैं जहां वर्ष 2015 के चुनाव में भाजपा के उम्मीदवार सफल रहे थे। इस लिहाज से पार्टी में इस बात पर भी जोर है कि बराबर-बराबर की बजाए भाजपा से अधिक सीटों पर दावा किया जाए। जैसा वर्ष 2005 और 2010 के विधानसभा चुनाव में हुआ था। सभी विधानसभा के अधिकारियों और जिम्मेदार कार्यकर्ताओँ से एक से अधिक नाम मांगे गए हैं। इस लिहाज से अगर कार्यकर्ता वर्तमान विधायक की बजाए किसी अन्य का नाम भी सुझाते हैं तो मौजूदा विधायक की दोबारा उम्मीदवारी पर खतरा हो सकता है। आरसीपी सिंह ने ऐसे संकेत साफ तौर पर दे दिए हैं।

दो से ज्यादा दावेदार वाली सीटों पर होगा असर 

निश्चित तौर पर हाल के विधानसभा रिजल्ट के बाद बीजेपी इस स्थिति में नहीं है कि अपनी सभी शर्तें जेडीयू पर थोप सकें। ऐसे में अगर दिल्ली के परिणाम बीजेपी के लिए मनमाफिक नहीं हुए तो पार्टी बिहार में उन सीटों को जेडीयू की झोली में डाल सकती है जिन सीटों पर मौजूदा विधायक के साथ साथ कुछ दूसरे मजबूत कार्यकर्ताओँ की दावेदारी होगी। पार्टी विवाद से बचने के लिए ऐसे सीटों से तौबा कर सकती है और इसका सबसे ज्यादा असर गंगा के उस पार यूपी और नेपाल की सीमा से लगे चम्पारण, सीतामढ़ी, शिवहर और मुजफ्फरपुर जिले की सीटों पर पड़ सकता है। इन जिलों में भी बीजेपी विधायकों के लिए ज्यादा मुश्किलें चम्पारण के विधायकों के साथ होंगी। बिहार बीजेपी अध्यक्ष संजय जायसवाल का गृह जिला और उनके संसदीय क्षेत्र होने की वजह से इन इलाकों में विवाद की स्थिति से बचने के लिए पार्टी कुछ सीटें सहयोगी जनता दल यूनाईटेड को देने पर विचार कर रही है। पार्टी का साफ मानना है कि चम्पारण की कई सीटें ऐसी हैं जहां तीन-चार या उससे अधिक मजबूत दावेदार हैं ऐसे में टिकट तो एक ही को मिलेगा, फिर दूसरे दावेदार टिकट नहीं मिलने या फिर टिकट कटने की परिस्थिति में पार्टी के लिए भीतरघात कर सकते हैं। भविष्य में प्रदेश अध्यक्ष के लिए भी मुश्किलें पैदा हो सकती हैं लिहाजा यह तय किया जा रहा है कि ऐसी विवादित सीटें जेडीयू के खाते में डाल दी जाएँ। कुल मिलाकर मौजूदा स्थिति में जेडीयू ने बीजेपी पर अपनी बढ़त बनाई हुई है।

हालांकि अभी चुनाव की तैयारियों के लिए 6 महीने से ज्यादा का वक्त है लेकिन राजनीति के मैदान में 6 महीने ऐसे गुजरते हैं मानो 6 मिनट बीते हों। निश्चित तौर पर बिहार का चुनाव का मजमून दिल्ली के परिणाम के बाद ही लिखा जाएगा।

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