इतिहास के पहले सर्जिकल स्ट्राइक की कहानी है ” तानाजी”

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पिछले दिनों दो फिल्में आईं और दोनों को लेकर बहस छिड़ी और दर्शक वर्ग दो हिस्सों में बंट गया। बहुत ही गंभीर मुद्दे पर दीपिका पादुकोण की फिल्म छपाक और अनसंग हीरो के किस्से तलाशती तानाजी की बॉक्स ऑफिस पर भिड़ंत हो गई। हालांकि दोनों फिल्मों का किसी भी लिहाज से तुलना किया जाना बेमानी होगा। दोनों अलग प्रकृति की फिल्में हैं और दोनों के निर्माण पर हुए खर्च में भी जमीन आसमान का फर्क है। ऐसे में दोनों की तुलना नहीं हो सकती। लेकिन दोनों फिल्मों के साथ एक बात गौर करने वाली है कि दोनों बायोपिक है। एक मौजूदा दौर की कहानी है तो एक इतिहास के पन्नों में गुम एक योद्धा की। जहां एक तरफ छपाक साफ तौर पर लक्ष्मी अग्रवाल की बायोपिक है लेकिन उसे बड़ा कैनवास देने के लिए सच्ची घटना से प्रेरित कहा गया जबकि तानाजी के बारे में इतिहास में बहुत कुछ नहीं मिलता लेकिन फिल्म से जुड़े लोगों ने उसके लिए काफी रिसर्च किया कहा कि यह शिवाजी के सबसे भरोसेमंद योद्धा तानाजी की कहानी है। दीपिका के जेएनयू जाने का मामला इतना गरमाया कि माना जाने लगा उसी से उनकी फिल्म को नुकसान हुआ। छपाक के साथ ऐसा क्यूं हुआ और छपाक कैसी फिल्म थी उसकी चर्चा अलग से करेंगे। फिलहाल बात करते हैं तानाजी की।

अजय देवगन ने क्यूं लिया रिस्क

जब हम यह लिख रहे हैं तब तक तानाजी तकरीबन 175 करोड़ का बिजनेस कर चुकी है और बताई गई लागत (150 करोड़ ) वसूल चुकी है। अभी सिनेमाघरों में भीड़ बदस्तूर जारी है लिहाजा फिल्म आराम से 200 करोड़ का आंकड़ा पार कर जाएगी। तो सफलता के लिहाज से फिल्म सफल है और इस फिल्म के मुख्य अभिनेता अजय देवगन की यह होम प्रोडक्शन है मतलब वो काफी फायदे में है। अब आखिर ऐसा क्या है कि जिस शख्स का नाम इतिहास के पन्नों में गुम है उसे पर्दे पर उतारने का रिस्क अजय देवगन ने क्यूं लिया। यह आपको सिनेमा के पहले दृश्य से ही साफ हो जाएगा।

तानाजी की कहानी

फिल्म में अपने पहले सीन में एंट्री से ही तानाजी एक रोमांच पैदा करता है और आपके रोंगटे खड़े हो जाते हैं। कई बार फिल्म को देखते हुए आपको यह अहसास होता है कि हम क्या वाकई में अपनी मिली हुई आजादी का मोल जानते हैं। क्या हम जानते हैं कि हम क्या थे? कैसे थे ? और किनकी वजहों से हम आज यहां खड़े हैं। शौर्य, पराक्रम और बलिदान की अनूठी दास्तान को देखते हुए एकबारगी आपके कानों में गूंजने लगेगा “ हम लेकर रहेंगे आजादी” । अगर तानाजी जैसे वीरों ने अपना सब कुछ दांव पर लगाकर अपनी पीढ़ी दर पीढ़ी इतिहास की आग में नहीं झोंक दिया होता तो क्या ही खाक आज आजादी के तराने गा रहे होते। यकीन मानिए कि हम आजादी का मोल नहीं समझ पा रहे।

छत्रपति शिवाजी महाराज की कहानी तो हम सभी ने बचपन से ही सुनी है, लेकिन और कौन लोग थे जो उनके साथ अपनी जान की बाजी हर रोज लगाते थे और जिन्होंने जान पर खेलकर देश की मिट्टी की आन बान शान बचाए रखा उसी में एक सबसे खास तानाजी मालुसरे की कहानी है यह। फिल्म औऱ मौजूदा इतिहास के नजर से देखें तो शिवाजी के दोस्त थे तानाजी मालुसरे,तानाजी को शिवाजी का दाहिना हाथ माना जाता था और उन्होंने बड़ी-बड़ी लड़ाईयां लड़ी थी। अपने जीवन की आखिरी लड़ाई में जब वो कोंढाणा के किले को आजाद कराते हुए अपनी जान गंवाते हैं तो शिवाजी ने अपने दोस्त के लिए कहा कि ‘गढ़ आला पण सिंह गेला’ यानी किला तो मिल गया लेकिन शेर चला गया। अपने विश्वसनीय योद्धा और मित्र के लिए कहे गए उनके ये‌ शब्द इतने लोकप्रिय हुए कि अब कहावत की तरह इस्तेमाल किए जाते हैं। नई पीढ़ी को इस शौर्य और पराक्रम की कहानी जरूर देखनी चाहिए। तानाजी से जैसे सैकड़ों आजादी के दीवाने अपने प्राण न्यौछावर कर गए। वो गुलाम मुल्क में आजादी के परवाने थे आज के कुछ भटके हुए नौजवानों की तरह नहीं जो आजाद मुल्क में ही आजादी मांगते हैं।

कहानी, अभिनय और निर्देशन

फिल्म की कहानी बस इतनी सी है कि तानाजी, शिवाजी महाराज का सबसे भरोसेमंद योद्धा और मित्र है, वो सबसे दुर्गम और महत्वपूर्ण, हारे हुए किले को जीतने के लिए जाता है, किला जीतता है और अपनी जान गंवा देता है। लेकिन इस छोटी सी कहानी में जिस तरीके से तानाजी के शौर्य, पराक्रम और वफादारी को दिखाया गया है वो लेखक और निर्देशक के फिल्म पर मजबूत पकड़ की बानगी है। अजय देवगन ने अपने सौंवीं फिल्म में अभिनय से खुद को योद्धा साबित किया है, शिवाजी के किरदार में शरद केलकर, तानाजी की पत्नी सावित्री के किरदार में काजोल ने अपने हिस्से का बढिया काम किया है। विलेन के तौर पर सैफ अली खान जमे हैं, हालांकि उनका किरदार उदयभान नाम के एक राजपूत सूबेदार का है लेकिन पहनावे और रंग ढंग से बिल्कुल मुगलिया लगे हैं और फिल्म के सफल होने के बाद जिस तरीके से एक साक्षात्कार में उन्होंने तानाजी के इतिहास को झूठा साबित करने की कोशिश की वो निश्चित तौर उनके भीतर के किसी कुंठा का परिणाम है क्योंकि फिल्म के निर्माता अजय देवगन को इस फिल्म से वाहवाही मिली है वहीं सैफ के अभिनय की तारीफ होने के बाद भी उनको जो पब्लिसिटी मिलनी चाहिए थी वो नहीं मिली। कुछ कुछ ऐसे ही रंग रूप में कुछ समय पहले आई उऩकी फिल्म लाल कप्तान औंधे मुंह गिरी थी शायद उसका दर्द भी उनके बयानों में दिखता है। लेकिन सैफ को यह समझना चाहिए कि लाल कप्तान की कहानी में दम होता तो निश्चित तौर पर पब्लिक कुछ न कुछ तो रिस्पांस देती । बिल्कुल औंधे मुंह नहीं गिरती।

संगीत और इतिहास का मेल

मराठी संस्कृति में पोवाडा गाए जाने की प्रथा है। 17वीं सदी में अस्तित्व में आया पोवाडा असल में एक तरह का लोकगीत है जिसमें ऐतिहासिक घटनाओं और योद्धाओं की शूरवीरता का बखान बड़े ओज के साथ किया जाता है।  यह भी दिलचस्प है कि सबसे ज्यादा जनप्रिय पोवाड़े तानाजी मालुसरे पर ही लिखे गये हैं। फिल्म को गौर से देखने और पोवाड़े का इतिहास पढ़ने के बाद यह अहसास होता है कि तानाजी की पटकथा में पोवाड़े का ज्यादा जोर है। ऐतिहासिक तथ्यों का कम। फिल्म की मेकिंग भी कुछ कुछ पोवाड़े की ही तर्ज पर है। क्यूंकि पोवाड़े तो मौजूद हैं लेकिन तानाजी के बारे में इतिहास में कम ही साक्ष्य हैं। शायद इन्हीं सब जानकारी के बाद सैफ ने तानाजी के ऐतिहासिक अस्तित्व पर सवाल खड़े किए हैँ।

जो खटकती है फिल्म में

एक चीज फिल्म में जो सबसे ज्यादा खटकती है वो यह है कि फिल्म में स्वराज शब्द का इस्तेमाल ज्यादा किया गया है, उस दौर में शिवाजी, भगवा की बात करते हुए इतिहास में देखे जाते हैं लेकिन बात बात में स्वराज की चर्चा निर्देशक और लेखक ने अपनी कल्पना और मौजूदा दौर और माहौल के लिहाज से रखा है। एक तरफ जहां पूर्व में लिखे गए इतिहास पर आजकल जिस तरीके से सवाल खड़े हो रहे हैं और हर ऐतिहासिक तथ्यों के साथ छेड़छाड़ कर फिल्में बनाई जा रही हैं वैसे में आनेवाले दिनों में ये फिल्में भी ऐतिहासिक तथ्यों की ही तरह इस्तेमाल की जाएंगी। लिहाजा फिल्मकारों को तथ्यों के पास ही रहना चाहिए लेकिन यहां सबसे बड़ा सवाल है कि इन तथ्यों की पुष्टि करेगा कौन।

फिल्म देखने लायक 

फिल्म में ग्राफिक्स और VFX का अच्छा इस्तेमाल किया गया है। अभिनेताओँ के दमदार अभिनय और VFX ने फिल्म को देखने लायक बना दिया है साथ ही इतिहास के रू-ब-रू होने का तो मौका देता ही है।

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