आवरण कथा/कामयाब भारतवंशी: विश्व सियासी मंच पर भारतवंशी

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अनुरंजन झा, इंग्लैंड से

“ब्रिटेन में ऋषि सुनक के प्रधानमंत्री पद की दावेदारी की होड़ में पहुंचने से विदेश और खासकर पश्चिमी लोकतंत्रों में सियासी शिखर तक कामयाब सफर पर नए सिरे से नजर गई, दुनिया के कई देशों में भारतवंशियों की सियासी यात्रा पर एक नजर”

ब्रिटेन में 5 सितंबर को नया प्रधानमंत्री चुन लिया जाएगा। ब्रिटिश प्रधानमंत्री की रेस में जो उम्मीदवार बचे हैं उनमें भारतीय मूल के ऋषि सुनक मजबूत दावेदारी के साथ आगे चल रहे हैं। दूसरे नंबर के उम्मीदवार से उनकी लीड भी ज्यादा है। यहां की लोकतांत्रिक व्यवस्था में सत्ताधारी पार्टी का मुखिया बनने और प्रधानमंत्री बनने की उम्मीदवारी का दावा थोड़े से समर्थन के साथ कोई भी सांसद कर सकता है लेकिन उसके बाद उसकी छंटनी का दौर शुरू होता है और दो राउंड के बाद स्थिति साफ होने लगती है। मुकाबला कड़ा हो जाता है। ऐसे में 10 डाउनिंग स्ट्रीट पहुंचने की कगार पर खड़े किसी भारतवंशी को देखकर भारत और दुनियाभर में बसे भारतीयों के मन में उत्सुकता है कि भारतीय मूल का शख्स अगर ब्रिटेन का प्रधानमंत्री बनता है, तो यह भारत के लिए कैसा होगा। जिन ब्रितानियों ने भारत पर 200 साल राज किया, उसी देश का प्रधानमंत्री बनने से एक भारतवंशी बस एक कदम दूर है। वह भी तब जब भारत अपनी आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है। यानी आजादी के पचहत्तरवें साल में भारतीय मूल का व्यक्ति ब्रिटेन की बागडोर संभाल सकता है। पिछले दिनों ब्रिटेन में अचानक दो कैबिनेट मंत्रियों ने अपना इस्तीफा प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन को सौंप दिया। इसमें भारतीय मूल के ब्रिटिश वित्त मंत्री ऋषि सुनक और पाकिस्तानी मूल के साजिद जाविद शामिल थे। इन दोनों के इस्तीफे के बाद जैसे, पद छोड़ने वालों की झड़ी लग गई। देखते ही देखते पचास से ज्यादा ऐसे लोगों ने पदत्याग दिए, जो या तो सरकार में मंत्री थे या किसी बड़े पद पर आसीन थे। मजबूरन ब्रिटिश प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन को त्यागपत्र देना पड़ा। हालांकि इस्तीफे से कुछ दिन पहले ही बोरिस जॉनसन विश्वास मत हासिल कर अपनी कुर्सी बचाने में कामयाब हुए थे। उनकी कुर्सी बरकरार रहे, इसके लिए इन दोनों मंत्रियों ने बहुत ताकत भी लगाई थी। बावजूद इसके ब्रिटिश राजनीति के तरीकों को देखते हुए उनकी विदाई के कयास लगने लगे थे।

जमा दी धाक ः अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन के साथ भारतीय मूल की उप-राष्ट्रपति कमला हैरिस

जमा दी धाक ः अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन के साथ भारतीय मूल की उप-राष्ट्रपति कमला हैरिस

सदन के नियम के अनुसार जॉनसन को कार्यवाहक बनाए रखा गया और नए प्रधानमंत्री और सत्ताधारी पार्टी लीडर की तलाश शुरू हुई। ऋषि सुनक ने जैसे ही पार्टी लीडर और प्रधानमंत्री के तौर पर अपनी दावेदारी पेश की, पूरी दुनिया में राजनैतिक हलचल मच गई। पहले और दूसरे दौर में अपने प्रतिद्ंवद्वियों से बहुत आगे निकल गए सुनक ने सबका ध्यान अपनी ओर खींचा और पूरी दुनिया को सोचने पर मजबूर किया कि भारतवंशी मेहनत, ईमानदारी और नेतृत्व क्षमता से दुनिया के किसी भी हिस्से में अपना दबदबा कायम रख सकते हैं।

ऋषि सुनक के ब्रिटिश प्रधानमंत्री बनने की कितनी उम्मीदें हैं, इस चर्चा के बीच यह बात भी उठी कि दुनिया के ताकतवर मुल्कों में भारतीय मूल के कहां और कितने नेता हैं। सुनक की तरह ही कमला हैरिस ने भी दुनिया को तब चौंका दिया था, जब वे ताकतवर मुल्क अमेरिका के उप-राष्ट्रपति पद तक पहुंची थीं। अमेरिकी राजनीति के इतिहास में इस बड़े पद पर पहुंचने वाली वे पहली भारतीय मूल की नेता हैं। इतिहास के पन्नों को खंगालें तो भारत से गिरमिटिया मजदूर के तौर पर गए भारतीयों ने मॉरीशस, सूरीनाम, फिजी और गुयाना जैसे देशों में धीरे-धीरे अपनी धाक जमाई और वहां की राजनीति की धुरी बन गए। हम अक्सर पढ़ते-सुनते रहे हैं कि इन देशों के राष्ट्राध्यक्ष भारतीय मूल के हैं और उनकी जड़ें बिहार और उत्तर प्रदेश के गांवों में हैं। अक्सर ये लोग भारत के दौरे पर आते हैं, तो अपने पूर्वजों के गांव जाना नहीं भूलते। इनमें से कई देशों में ये भारतीय इतने ताकतवर हैं कि वहां की राष्ट्रीय भाषा में भोजपुरी शामिल हो गई है। पिछले एक-डेढ़ दशक में, परिदृश्य बहुत बदल चुका है। अब भारतवंशियों की पकड़ और उनका राजनैतिक विस्तार अमेरिका, यूरोप समेत कनाडा और न्यूजीलैंड तक जा पहुंचा है। सिंगापुर और रूस में भी भारतीयों की राजनैतिक हिस्सेदारी देखी जा रही है। उसी का परिणाम है कि एक भारतवंशी ब्रिटेन की सत्ता के करीब जा पहुंचा है। जाहिर है इस मुकाम तक पहुंचने में भारतीयों ने बिना थके लगातार मेहनत की है। लेकिन क्या इन देशों में भारतवंशियों की हिस्सेदारी से भारत को या भारतीयों को कोई लाभ भी मिलता है या आगे मिलेगा? यह सबसे बड़ा सवाल हमारे सामने रहता है। दरअसल इसका कोई ठोस फार्मूला नहीं है, जिसके दम पर कहा जा सके कि भारतीय मूल के लोगों के दुनिया की राजनीति में मजबूत होने से भारत को सिर्फ लाभ ही मिलेगा। ये अलग-अलग देशों पर अलग अलग तरीके से निर्भर करता है। साथ ही यह भी सच है कि ये भारतवंशी भले ही इन अलग-अलग मुल्कों में सत्तानशीं हो जाएं लेकिन उनको वहां की जनता का ख्याल रखते हुए बार-बार यह बताना पड़ता है कि भारत उनका मुल्क नहीं है, चाहे उनके दिल में भारत के लिए अथाह प्रेम क्यों न हो। कमला हैरिस की बातें याद हों, तो यह तथ्य भी साफ हो जाता है। अपने चुनावी दौड़ के आखिरी पड़ाव तक पहुंचते-पहुंचते कमला हैरिस ने भारत से दूरी बनाने में ही भलाई समझी जबकि अमेरिका का सच यह भी है कि वहां पूरी दुनिया के अलग-अलग हिस्सों से लोग आकर बसे हैं। तमाम भारतीय, जो अब वहां वोट देने के अधिकारी हैं, उन्हें भी शायद अच्छा नहीं लगता कि उनके नेता को कोई बार-बार भारतीय कहे क्योंकि वे खुद को पूरी तरह अमेरिकी मान चुके होते हैं। कनाडा में भारतीयों की आबादी और खासकर सिखों की आबादी बहुत ज्यादा है। दशकों से वहां की राजनीति को भारतीय प्रभावित करते रहे हैं, बड़े और जिम्मेदार पदों पर रहे हैं और कभी भी वह समय आ सकता है कि कनाडा का प्रधानमंत्री कोई भारतीय मूल का या भारत में ही जन्मा व्यक्ति हो। लेकिन क्या उस व्यक्ति के सत्ता में आने से भारत के लिए गर्व का माहौल होगा या चिंता की लकीरें खिंचेगी, यह उस व्यक्ति पर निर्भर करेगा। यह साफ देखा गया है कि पंजाब में खालिस्तानी गतिविधियों को हवा देने में उन कनाडाई सिखों का योगदान सबसे ज्यादा रहा है, जो वर्षों पहले भारत छोड़कर चले गए और वहां मजबूत व्यापारी या नेता हैं।

बड़ी जिम्मेदारी ः जॉनसन के साथ ब्रिटेन की होम सेक्रेटरी प्रीटी पटेल

विदेशी मूल का मुद्दा सिर्फ भारत में ही नहीं उठता, बल्कि दुनिया भर के देशों में दबी जबान से ही सही पर इस पर चर्चा होती रहती है। ऐसे में किसी दूसरे देश की राजनीति में सर्वोच्च शिखर पर पहुंचने की राह में तमाम बाधाएं हैं और यही सबसे बड़ा कारण है कि इस रास्ते पर चल रहा कोई भारतवंशी चाहकर भी खुलकर भारत-प्रेम नहीं दिखा पाता। आयरलैंड के सबसे युवा देश प्रमुख रहे लियो वराडकर भारतीय मूल के हैं और 2017 से 2020 तक देश की बागडोर संभाल चुके हैं। उनके पिता मुंबई में पैदा हुए और बतौर डॉक्टर ब्रिटेन चले गए थे। लियो कम उम्र से ही राजनीति में आ गए थे। आज वे आयरलैंड की राजनीति में अहम भूमिका अदा कर रहे हैं। प्रियंका राधाकृष्णन पहली भारतीय मूल की महिला हैं, जिन्होंने न्यूजीलैंड में जेसिंडा अर्डन की सरकार में पांच प्रमुख मंत्रियों में जगह बनाई। प्रियंका का जन्म चेन्नै में हुआ था और पहले सिंगापुर में पढ़ाई करने के बाद उच्च शिक्षा के लिए वे न्यूजीलैंड चली गईं थीं। प्रियंका न्यूजीलैंड में उन लोगों की आवाज बनी थीं, जिनके लिए इंसाफ की लड़ाई चुनौतीपूर्ण होती है। उन्होंने घरेलू हिंसा में प्रताड़ित होने वाली महिलाओं और शोषणग्रस्त प्रवासी मजदूरों के अधिकार के लिए काम किया है। जेसिंडा अर्डन ने अपने मंत्रिमंडल में प्रियंका को जगह देते हुए कहा, “मंत्रिमंडल में नई प्रतिभा को शामिल करते हुए मुझे बेहद खुशी हो रही है। जो मंत्रालय उन्हें दिया गया है उसे लेकर उन्होंने भरपूर काम किया है।” प्रियंका पहली पीढ़ी की भारतवंशी है, जिन्होंने किसी दूसरे देश में यह मुकाम पाया है।

कनाडा में रक्षा मंत्री अनीता आनंद को यह पद एक अन्य भारतीय मूल के सिख नेता हरजीत सज्जन से मिला था। हरजीत सज्जन के पास अब दूसरा महत्वपूर्ण मंत्रालय, इंटरनेशनल डेवलपमेंट है। कनाडा में 19 नेता ऐसे हैं जो भारतीय मूल के हैं और वहां की राजनीति में दखल रखते हैं। आठ लोग तो जस्टिन ट्रूडो की सरकार में मंत्री भी हैं। कुछ साल पहले तक पहली पीढ़ी के भारतीय विधु शेखर झा वहां की सरकार में अहम पद पर आसीन रहे और मेनिटोबा प्रोविंस से देश की राजनीति को 2003 से 2016 तक प्रभावित किया। लगातार तीन बार यहां से जीतने वाले ये पहले नेता रहे। वहीं अमेरिका में दर्जनों ऐसे नेता हैं, जो पहली या दूसरी पीढ़ी के भारतवंशी हैं और जिनका सरकार पर दबदबा है। इतना ही नहीं, पिछले कुछ साल में देखा गया है कि ऑस्ट्रेलिया में भी पहली पीढ़ी के ही कई युवाओं कौशल्या वाघेला और दीपक राज गुप्ता जैसों ने राजनीति में अपनी जगह बनाई है। रूस जैसे देश में जहां दूसरे देश से आए लोगों को अपनाना जरा मुश्किल दिखता है वहां भी पहली पीढ़ी के अभय सिंह ने राजनीति में खास जगह बनाई है। रूस-यूक्रेन युद्ध के दौरान बेबाकी से वे लगातार अपना पक्ष भी रखते नजर आते हैं।

दमदार उपस्थितिः कनाडा की रक्षा मंत्री अनीता आनंद (ऊपर), न्यूजीलैंड की प्रधानमंत्री के साथ प्रियंका राधाकृष्णन

न्यूजीलैंड की प्रधानमंत्री के साथ प्रियंका राधाकृष्णन

वैश्विक स्तर पर देखा जाए तो आज की तारीख में यह बड़ी उपलब्धि है कि दुनिया के तकरीबन पच्चीस देशों की राजनीतिक सत्ता में शीर्ष पदों पर भारतीय मूल के 200 से ज्यादा लोग काबिज हैं। इनमें से 10 सरकारों के प्रमुख या उसके बराबर कद रखने वाले भारतीय मूल के हैं। इस लिस्ट में पुर्तगाल के पीएम एंटोनियो कोस्टा का नाम भी है। उनके पिता गोवा निवासी थे। हालांकि तब गोवा भारत का हिस्सा नहीं था और वह पुर्तगाल के ही अधीन था। अब इन पच्चीस देशों की राजनीति में दखल रखने वाले भारतवंशियों पर इस लिहाज से भी नजर रखनी होगी कि ये भारत की राजनीतिक स्थिरता के लिए या भारतीयों के लिए कितनी सही है। इनमें से ज्यादातर भारत के लिए तनाव-मुक्त मित्र हैं लेकिन कुछ के लिए भारतीय सत्ताधारियों को या फिर यूं कहें कि राजनयिकों को थोड़ी मशक्कत करनी पड़ती है, क्योंकि वहां से बैठ कर जब वे भारत की अंदरूनी राजनीति में हस्तक्षेप करते हैं तो स्थिति थोड़ी खराब हो जाती है।

दरअसल राजनीतिक स्तर पर देखें, तो इसके दो पहलू हैं। विदेशों में रह रहे भारतवंशी तीन तरह के हैं। एक, जो वहां अपने रोजगार में व्यस्त हैं। दूसरे, जो वहां के बड़े व्यवसायी हो चुके हैं। और तीसरे, जो वहां की राजनीति में भी पैठ रखते हैं। पहले किस्म के भारतवंशी कई दशक से उसी रफ्तार से चल रहे हैं। दूसरे किस्म के वे जिनके लिए भारत में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने ‘प्रवासी भारतीय दिवस’ जैसे आयोजन की शुरुआत की। इसके जरिए दोनों देशों के ताकतवर लोगों को जोड़ने के साथ भारतवंशियों के सहारे भारत के नागरिकों को बेहतर वैश्विक प्लेटफॉर्म देने की कवायद शुरू हुई। इसी का नतीजा है कि जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अमेरिका में ‘हाउडी मोदी’ जैसे कार्यक्रम में शिरकत करते हैं तो हजारों की तादाद में लोग जमा होते हैं, वहां के कार्यक्रम के लिए चंदा देते हैं और भारत में निवेश की योजना बनाते हैं। लेकिन जैसे ही राजनीतिक स्तर के उन भारतवंशियों की बात होती है, एक लकीर खिंच जाती है क्योंकि न चाहते हुए भी उनके लिए उस मुल्क को प्राथमिकता देना जरूरी हो जाता है, जहां के वे नेता हैं। इस नजर से देखें तो भारतवंशियों की वजह से भारतीय लोगों को तत्काल लाभ दिखता नजर नहीं आता लेकिन लंबी राजनीति और दुनिया भर में भारत की धाक के लिए ये बेहतर प्रतीत होता है। जैसे-जैसे ताकतवर मुल्कों की राजनीति में भारतवंशियों का दबदबा बढ़ा है, वैसे-वैसे भारत की ताकत मजबूत हुई है। भारत के राष्ट्रीय हितों के प्रति निश्चित तौर पर इन देशों का नजरिया बदलता है लेकिन यहां फिर वही बात गौर करने वाली है कि जिन व्यक्तियों का दबदबा बढ़ता है, वे भारत को किस नजर से देखते हैं।

कनाडा रक्षा मंत्री अनिता आनंद

कनाडा की रक्षा मंत्री अनिता आनंद

एक बार फिर लौटते हैं ऋषि सुनक पर। बहुत सारे विवेचकों को सुनक की राह आसान नहीं दिखती लेकिन अब यह बहुत मुश्किल भी नहीं है। थेरेसा मे के इस्तीफे के बाद जब बोरिस जॉनसन ने ब्रिटेन की सत्ता संभाली थी तो साजिद जाविद को कुछ ही समय बाद हटाकर युवा ऋषि सुनक को ब्रिटेन का चांसलर यानी वित्त मंत्री बना दिया गया। इस फैसले की बड़ी वजह भारत के साथ संबंध था। ब्रिटेन समते तमाम यूरोपीय देशों को ठीक-ठीक अनुमान है कि भारत दुनिया भर में मजबूत आर्थिक ताकत के तौर पर उभर रहा है। ऐसे में भारत के साथ संबंध बेहतर रहें इसलिए ब्रिटेन ने पाकिस्तानी मूल के साजिद जाविद को वित्त मंत्री के पद से हटाकर इंफोसिस के फाउंडर नारायणमूर्ति के दामाद सुनक को वित्त मंत्री बना दिया। कुछ ही समय बाद दुनिया कोविड की चपेट में आ गई और सुनक के लिए मुश्किलें खड़ी हो गईं। लेकिन जिस तरह से ब्रिटेन की जनता का ख्याल रखते हुए सुनक ने आर्थिक पैकेज की घोषणाएं कीं और ब्रिटेन की भावी पीढ़ियों के भविष्य के लिए सख्त कदम उठाए, ब्रिटेन की जनता ने सुनक में निश्चित तौर पर अपना नेता देखा। साथ ही जब उन्होंने यह कहा, “मैं ब्रिटेन की अगली पीढ़ियों को बिल का भुगतान करने वाली पीढ़ी के तौर पर बड़ा होते नहीं देखना चाहता,” तो ऐसा लगा कि निश्चित तौर पर उनके दिमाग में ब्रिटेन को और बेहतर बनाने की योजनाएं हैं। यह जरूर है कि उन्हें अपने भाषण में या टीवी डिबेट में बार-बार कहना पड़ता है कि मेरा देश, मेरा ब्रिटेन, मेरे लोग क्योंकि वे अच्छी तरह जानते हैं कि वे भले ही ब्रिटेन में जन्मे हैं लेकिन हैं तो भारतवंशी ही। उन्हें डर है कि अपना नेता चुनते वक्त आखिरी मौके पर गोरे लोग उनसे मुंह न मोड़ लें। बावजूद इसके अभी बैलेट वोटिंग से लेकर टीवी डिबेट तक सुनक का पलड़ा भारी ही रहा है। निश्चित तौर पर एक ईमानदार और देशभक्त भारतीय नारायणमूर्ति के दामाद होने का लाभ उन्हें मिलेगा। हालांकि पत्नी अक्षता मूर्ति के अब तक ब्रिटिश नागरिक न होने और उसकी आड़ में टैक्स बचाने के आरोप से कुछ नुकसान भी होगा। फिर भी इतना तो कहा जा सकता है कि अब ब्रिटेन को पहला हिंदू प्रधानमंत्री मिलने की संभावनाएं प्रबल हैं।

बहरहाल, इससे कोई यह अंदाजा लगाए कि पश्चिमी जगत या दुनिया में इससे भारत का डंका बजने लगेगा, तो यह छलावा मात्र होगा। यह भी सही है कि सियासत या कारेबार के शिखर तक पहुंचे सभी भारतवंशी कमजोर आर्थिक हैसियत के ही नहीं हैं। यह भी गौरतलब है कि पश्चिम के उदार लोकतंत्रों की समावेशी नीति उन्हें शिखर पर पहुंचने दी है।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं)

आउटलुक से साभार

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