आजादी के गुमनाम सुराजी

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“आजादी की हीरक जयंती (75वीं वर्षगांठ) पर कुछ ऐसे सुराजियों और उन बिरले अंग्रेजों की कथा याद करना जरूरी है, जिनके बिना आजादी की लड़ाई का वृतांत अधूरा है या यूं कहें कि इतिहास में जिन्हें जगह न के बराबर मिली है”

आजादी की हीरक जयंती (75वीं वर्षगांठ) पर कुछ ऐसे सुराजियों और उन बिरले अंग्रेजों की कथा याद करना जरूरी है, जिनके बिना आजादी की लड़ाई का वृतांत अधूरा है या यूं कहें कि इतिहास में जिन्हें जगह न के बराबर मिली है। सही मायने में कहा जाए तो ये गुमनाम सुराजी नींव के पत्थर थे जिनकी बुनियाद पर खड़े होकर ही हमने आजादी पाई। इसी तरह कुछेक अंग्रेज शख्सियतों ने भी भारत की आजादी के लिए अपना जीवन दे दिया और संघर्ष झेले।

मातंगिनी हाजरा

1930 में सविनय अवज्ञा आंदोलन के वक्त जगह-जगह यात्राएं निकल रही थीं, ऐसी ही एक यात्रा मिदनापुर बंगाल के तामलुक में भी निकल रही थीं। जिस रास्ते से यात्रा निकल रही थी उसी रास्ते पर झोपड़ी में 60 साल की एक बुजुर्ग महिला अकेले रहती थी। उन महिला को न जाने क्या सूझी कि वे भी उस यात्रा में शामिल हो गईं। फिर क्या था उस महिला के जीवन में एक नई यात्रा शुरू हो गई। महात्मा गांधी के आह्वान पर वे हर सत्याग्रह में शामिल होने लगीं। नमक बनाकर नमक कानून तोड़ा और छह महीने की जेल हो गई। जेल से निकलते ही वे आजादी की लड़ाई लड़ने वाली ऐसी सिपाही बन चुकी थीं कि इलाके के लोग उन्हें बूढ़ी गांधी के नाम से बुलाने लगे थे। ये थीं मातंगिनी हाजरा। जेल जाने से पहले मातंगिनी को आजादी के आंदोलन के बारे में बहुत ज्यादा जानकारी नहीं थी लेकिन अंग्रेजों के अत्याचार से वाकिफ थीं। दरअसल अत्याचार तो उनके अपनों ने उन पर बहुत किया था। गरीबी की मार झेल रहे माता-पिता ने कम उम्र में 60 साल के बूढ़े से शादी कर दी, जब 18 साल की हुई तो पति का देहांत हो गया। सौतेले बच्चों ने घर से निकाल दिया, तो गांव के बाहर झोपड़ी बनाकर रहने लगीं। लोगों के घर काम करतीं और गुजारा चलता। लेकिन अब सब बदल चुका था। 1930 से लेकर 1942 तक मातंगिनी ने इलाके में क्रांति की अलख जगा दी। सत्याग्रह और धरने से इलाके के अंग्रेज अफसरों को नाकों चने चबवा दिया। 1942 में मातंगिनी हाजरा ने 72 साल की उम्र में तामलुक में भारत छोड़ो आंदोलन की कमान संभाल ली। तय हुआ कि मिदनापुर के सभी सरकारी ऑफिसों और थानों पर तिरंगा फहरा कर अंग्रेजी राज के खात्मे का ऐलान किया जाएगा। 29 सितंबर 1942 का दिन था, कुल 6,000 लोगों का जुलूस था, उसमें ज्यादातर महिलाएं थीं। जुलूस तामलुक थाने की तरफ बढ़ने लगा, पुलिस ने चेतावनी दी, लोग पीछे हटने लगे, वंदे मातरम के उद्घोष के साथ हाथ में तिरंगा थामे भीड़ चीरते हुए मातंगिनी सबके आगे आ गईं और कहा कि मैं फहराऊंगी तिरंगा। पुलिस की चेतावनी पर भी वे नहीं रुकीं तो पुलिस ने एक गोली उनके दाएं हाथ पर मारी। घायल मातंगिनी ने तिरंगे को दूसरे हाथ में लिया और आगे बढ़ गईं। दूसरी गोली दूसरे हाथ पर लगी, दोनों जख्मी हाथों से तिरंगा थामे जब वे आगे बढ़ रही थीं तब तीसरी गोली सीधे उनके माथे पर आकर लगी, मातंगिनी गिर गईं लेकिन तिरंगा न हाथ से छूटा और न ही गिरा, सीने पर तिरंगा चिपकाए वंदेमातरम की आखिरी आवाज के साथ मातंगिनीं अमर हो गईं।

रमेशचंद्र झा

रमेशचंद्र झा

मशहूर साहित्यकार कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर ने एक किताब की भूमिका में रमेशचंद्र झा के बारे में लिखा, “रमेशचंद्र झा और उनके परिवार का इतिहास स्वतंत्रता संग्राम में बर्बाद होकर अट्टाहास करने का है, वे उनमें हैं जिन्होंने गुलामी की बेड़ियां तोड़ने को स्वयं हथकड़ियां पहनी हैं और खौफनाक फरार जिंदगी का लुत्फ भी उठाया है, वे उनमें हैं, जिन्होंने स्वतंत्रता पाई नहीं कमाई है और वे उनमें हैं जो स्वतंत्रता के लिए जान की बाजी लगा सकते हैं।” रमेशचंद्र झा अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि और पिता लक्ष्मीनारायण झा से प्रभावित होकर बचपन में ही बागी बन गए थे। उनके पिता को महात्मा गांधी की चंपारण यात्रा के पहले ही दिन गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया था और 6 महीने की सश्रम सजा हुई थी। महज 14 साल की उम्र में भारत छोड़ो आंदोलन के वक्त रमेशचंद्र झा पर ब्रिटिश पुलिस चौकी पर हमले और उनके हथियार लूटने का संगीन आरोप लगा। उस वक्त रेलगाड़ियां बहुत कम हुआ करती थीं और रात में तो नहीं के बराबर चलती थीं। अक्सर गर्मियों में ब्रिटिश रेलवेकर्मी मस्ती के चक्कर में रेलवे ट्रैक पर ही मजमा लगा लेते, खाते-पीते और वहीं सो भी जाते। एक बार रक्सौल के पास कुछ ब्रिटिश अधिकारी ऐसे ही सो रहे थे, बगल में मालगाड़ी की एक बोगी खड़ी थी, जिसे रमेशचंद्र झा ने अपने साथियों के साथ धक्का देकर उन लोगों के ऊपर से गुजार दिया, कुछ की जान चली गई और कई घायल हुए। भागते हुए सभी पहचाने गए थे। बाद में प्रशासन ने जिन चंद लोगों को देखते ही गोली मारने का आदेश दिया, उनमें रमेशचंद्र झा भी शामिल थे। रमेशचंद्र झा ने कम उम्र में ही गोरों के दमन का मुंहतोड़ जवाब दिया। पिता जेल में होते तो चाचा नंदजी झा उनकी मदद के लिए तैयार होते। नंदजी झा की दो बैलों की ऐसी जोड़ी थी जिसे बैलगाड़ी में जोत रमेशचंद्र झा रातोरात पचासों किलोमीटर का सफर तय कर लेते। जेल की सजा काटते हुए उनके अंदर भारतीय और विश्व साहित्य पढ़ने का चस्का लगा और बाहर आकर वे किसी राजनीतिक पार्टी के कार्यकर्ता होने के बजाए रचनाकार हो गए। आखिरी सांस तक लिखते रहे अपने गांव फुलवरिया में रहते हुए कहानी, उपन्यास और कविताओं की 70 से ज्यादा किताबें लिख डालीं। 66 साल की उम्र में 1994 में उनका निधन हो गया।

मारंग बाबा और उषा रानी मुखर्जी

मारंग बाबा और उषा रानी मुखर्जी

संथाल परगना में ब्रिटिश सीआइडी के निशाने पर 1930 के दशक में पहला नाम था मारंग बाबा का। संथाली उन्हें इसी नाम से पुकारते थे। इसी दौरान मारंग बाबा को दो बार जेल की सजा काटनी पड़ी। मारंग बाबा की मदद से पहले हिंदू मिशन ने ईसाई मिशनरियों के धर्म-परिवर्तन पर लगाम लगाई और बाद में नेताजी सुभाषचंद्र बोस को संथाल परगना में फॉरवर्ड ब्लॉक की स्थापना में पुरजोर मदद की। मारंग बाबा का असली नाम, लंबोदर मुखर्जी था। लंबोदर मुखर्जी की पत्नी उषा रानी मुखर्जी को संथाल परगना में फॉरवर्ड ब्लॉक की प्रथम महिला अध्यक्ष बनाया गया। उषा रानी और मारंग बाबा का क्रांतिकारी प्रभाव ऐसा था कि ब्रिटिश हुकूमत उन्हें जेल से रिहा करती तो बाहर उनके क्रियाकलापों पर काबू रखना मुश्किल हो जाता। और जेल भेजा जाता तो जेल में रखना भारी पड़ता। एक बार मुखर्जी दंपती को संथाल परगना से लोगों को भड़काने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया। उषा रानी मुखर्जी को भागलपुर जेल भेजा गया। लंबोदर मुखर्जी को नजरबंद कर मोतिहारी भेज दिया गया। रिहा होने के बाद वे फिर अपनी गतिविधियों में लिप्त हो गए। प्रशासन ने उनको देखते ही गोली मारने के आदेश दे दिए। जेल से बाहर रह रहीं उषा रानी मुखर्जी ने मोतिहारी से लेकर संथाल परगना तक ऐसी योजना बना डाली कि स्थानीय अधिकारियों को आभास हो गया कि अगर मारंग बाबा को कुछ हुआ तो विरोध विद्रोह में तब्दील हो जाएगा। उस वक्त देश में नेताजी का जोर चल रहा था और उषा रानी उनकी प्रमुख सिपाही थीं। एक रात बिना किसी को बताए लंबोदर मुखर्जी को पटना कैंप जेल से हजारीबाग जेल शिफ्ट कर दिया गया और डिप्टी कमिश्नर ने ऊपर यह लिख कर दे दिया कि लंबोदर मुखर्जी की जेल में ही मृत्यु हो गई। 1945 में जेल से रिहा होने के बाद लंबोदर मुखर्जी अंतरिम सरकार के गठन की योजनाओं में अहम भूमिका निभाने लगे। आगे चलकर वे अंतरिम सरकार में दुमका विधानसभा से निर्विरोध विधायक हुए। 1947 में जब देश आजाद हुआ तब पहली बार उषा रानी ने खुद को दुल्हन की तरह सजाया और लंबोदर मुखर्जी ने उषा रानी मुखर्जी अपने हाथों से कंगन पहनाया था। जिन दिनों उषा रानी जेल में कैद में थीं, उन्हीं दिनों उन्होंने एक बेटी को जन्म दिया था, जो बाद में भारतीय सेना की पहली महिला पैराट्रूपर बनीं।

बत्तख मियां

बत्तख मियां

यह बात तब की है जब महात्मा गांधी मोतिहारी में थे। चंपारण की नील फैक्ट्रियों के मैनेजरों के नेता इरविन ने महात्मा गांधी को एक रोज बातचीत के लिए बुलाया। यह वह दौर था जब ब्रिटिश हुकूमत ने महात्मा गांधी को नील की खेती करने वालों के बयान दर्ज करने की अनुमति दे दी थी। गांधी के सत्याग्रह का प्रयोग सफल हो रहा था। इरविन ने अपने आकाओं को खुश करने के लिए गांधी को जहर देकर मारने की खौफनाक योजना बना डाली। इरविन ने तय किया कि गांधी को खाने-पीने की चीजों में कोई ऐसा जहर दे दिया जाए, जिसका असर कुछ देर से होता हो। इरविन की कोठी पर मोतिहारी के पास के गांव के ही बत्तख मियां खानसामा थे। इरविन और उनके करीबियों ने बत्तख मियां को ये बात बताई और उन्हें डरा-धमका कर विश्वास में लिया। बत्तख मियां बहुत ही कम जोत के किसान थे, एक तरफ परिवार की जिम्मेदारी थी तो दूसरी तरफ अंग्रेजों का खौफ। बत्तख मियां से कहा गया कि आप भोजन हो जाने के बाद ये दूध का ट्रे लेकर गांधी के पास जाएंगे। अंग्रेजों के जुल्म का अंदाजा कर बत्तख मियां मना नहीं कर सके। उन्होंने ठीक वैसा ही किया जैसा इरविन का आदेश था। बत्तख मियां ट्रे लेकर चले गए। लेकिन जब गांधी के पास पहुंचे तो बत्तख मियां की हिम्मत नहीं हुई कि वे ट्रे गांधी के सामने रख सकें। गांधी ने उन्हें सिर उठाकर देखा तो बत्तख मियां रोने लगे। गांधी को अंदेशा हुआ और उन्होंने बत्तख मियां को पास बिठाकर पूछना शुरू किया। इरविन और उनके करीबियों के होश फाख्ता हो गए क्योंकि बात खुल चुकी थी। इस घटना के बाद बत्तख मियां का कोई नामलेवा नहीं बचा, उनको जेल हो गई। उनकी जमीनें नीलाम कर दी गईं और उनके पूरे परिवार को तरह-तरह से सताया गया। कहते हैं, गांधी ने इस बात का जिक्र न करने का वादा ले लिया था। यह घटना उजागर हुई 1957 में। उस वक्त डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद देश के राष्ट्रपति थे। एक कार्यक्रम के सिलसिले में वे मोतिहारी गए। वहां एक जनसभा में जब वे भाषण दे रहे थे तो उन्हें लगा कि वे दूर खड़े एक आदमी को पहचानते हैं। उन्होंने वहीं से आवाज लगाई, “बत्तख भाई, कैसे हो?” बत्तख मियां को मंच पर बुलाया और यह किस्सा वहीं से लोगों को बताया। ये चंपारण के लिए जैसे एक लोककथा है और बत्तख मियां अंसारी एक सेलिब्रेटेड इंसान हैं, अगर बत्तख मियां न होते तो न जाने देश और दुनिया के इतिहास का स्वरूप क्या होता।

 

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