“चम्पारण: सत्याग्रह और क्रांति का संगम“

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अनुरंजन झा, पत्रकार-लेखक

 

चम्पारण का नाम लेते ही महात्मा गांधी की याद आती है और सत्याग्रह जेहन में उभरता है। लेकिन ऐसा नहीं है कि चम्पारण में सिर्फ सत्याग्रह ही हुआ यहां की मिट्टी में ऐसे सुराजी पैदा हुए जिन्होंने अंग्रजी हुकूमत के खिलाफ न सिर्फ बगावत की बल्कि क्रांति की नई ईबारत लिखी। आज हम आजादी के अमृत महोत्सव की श्रृंखला में चम्पारण के कुछ ऐसे लोगों की चर्चा करेंगे जिनमें सत्याग्रही भी थे और क्रांतिकारी भी लेकिन सभी का मकसद एक ही था “आजाद हिन्द”।

 

राजकुमार शुक्ल

जब जब चम्पारण की बात की जाएगी तब तब महात्मा गांधी की बात होगी और जब जब चम्पारण में महात्मा गांधी की बात होगी तब तब किसान राजकुमार शुक्ल की बात होगी। वो राजकुमार शुक्ल ही थे जिनकी वजह से मोहनदास गांधी ने चम्पारण की यात्रा की और यात्रा समाप्त होते होते मोहनदास से महात्मा गांधी हो गए। बावजूद इसके राजकुमार शुक्ल को इतिहास में जितनी जगह मिलनी चाहिए थी उतनी नहीं मिल सकी। बहुत सारे इतिहासकारों ने उन्हें फुटनोट में ही निपटा दिया। गांधी ने भी अपनी डायरी के अलावा बहुत ज्यादा जिक्र राजकुमार शुक्ल का नहीं किया लेकिन हकीकत ये है कि राजकुमार शुक्ल शायद उस दौर के पहले व्यक्ति थे जिन्होंने सीधे सीधे अपनी ताकत पर अंग्रेजी हुकूमत की दमनकारी नीतियों के खिलाफ न अपनी आवाज बुलंद की बल्कि अपनी सोच-समझ, सूझबूझ और जीवटता से गांधी को चम्पारण तक ले आए। जहां आकर गांधी ने निलहों के अत्याचार से न सिर्फ चम्पारण को मुक्ति दिलाई बल्कि पहली बार गांधी का कोई आंदोलन भारत में सफल हुआ। हालांकि इस आंदोलन से या बाद की राजनीति से राजकुमार शुक्ल ने व्यक्तिगत तौर पर कुछ पाया नहीं, अपना सब कुछ गंवाया ही। बेलवा के निलही कोठी के मैनेजर एम्मन से राजकुमार शुक्ल की निजी रंजिश ऐसी बढ़ी कि उन्होंने चाणक्य की तरह शिखा खोलकर ब्रिटिश हुकूमत को उखाड़ फेंकने की प्रतिज्ञा कर डाली और सही मायने में उसकी नींव भी डालने में सफल हो गए। एक बार अंग्रेजी सैनिकों से अपने को बचाते हुए राजकुमार शुक्ल ने गंडक नदी की बहती धारा के विपरीत अपने साइकिल समेत 10 किलोमीटर से ज्यादा का सफर तय कर लिया था, इससे उनकी जीवटता का अहसास होता है। 60 बीघा जमीन से ज्यादा की खेती, 200 से ज्यादा पशुओं का हुजूम सब आजादी की लड़ाई में कुर्बान हो गए। 54 साल की उम्र में उऩके निधन पर चंदा जुटाकर उनका अंतिम संस्कार किया गया। उनकी तेरहवीं के वक्त उनके घर आकर उसी एम्मन ने न सिर्फ श्रद्धांजलि दी बल्कि उनके दामाद को सरकारी पुलिस की नौकरी का कागज भी सौंपा और डॉ. राजेंद्र प्रसाद के ये पूछने पर कि वो तो आपके दुश्मन थे फिर आप उनके लिए ऐसा क्यूं कर रहे हैं, तो ऐम्मन ने कहा कि चम्पारण का मर्द चला गया अब मैं किससे लड़ूंगा।

 

रमेश चंद्र झा

रमेश चन्द्र झा और उनके परिवार का इतिहास स्वतंत्रता संग्राम में बर्बाद होकर अट्टाहास करने का इतिहास है, वे उनमें है जिन्होंने गुलामी की बेड़ियाँ तोड़ने को स्वयं हथकड़ियाँ पहनी हैं और खौफ़नाक फ़रारी ज़िंदगी का लुत्फ़ भी उठाया है, वे उनमें हैं, जिन्होंने स्वतंत्रता पाई नहीं कमाई है और वे उनमें हैं जो स्वतंत्रता के लिए जान की बाज़ी लगा सकते हैं” ये कथन है मशहूर साहित्यकार कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर का जिन्होंने एक किताब की भूमिका में रमेशचंद्र झा के बारे में लिखा। रमेशचंद्र झा अपने पारिवारिक पृष्ठभूमि और पिता लक्ष्मीनारायण झा से प्रभावित होकर बचपन में ही बागी बन गए थे। उनके पिता को महात्मागांधी की चम्पारण यात्रा के पहले ही दिन गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया था और 6 महीने की सश्रम सजा हुई थी। महज 14 साल की उम्र में भारत छोड़ो आंदोलन के वक्त रमेश चंद्र झा पर ब्रिटिश पुलिस चौकी पर हमले और उनके हथियार लूटने का संगीन आरोप लगा। उस वक्त रेलगाड़ियां बहुत कम हुआ करती थीं और रात में तो नहीं के बराबर थीं, अकसर गर्मियों में ब्रिटिश रेलवे कर्मी मस्ती के चक्कर में रेलवे ट्रैक पर ही मजमा लगा लेते, खाते पीते और वहीं सो भी जाते, एक बार रक्सौल के पास कुछ ब्रिटिश अधिकारी ऐसे ही सो रहे थे, बगल में मालगाड़ी की एक बोगी खड़ी थी जिसे रमेशचंद्र झा ने अपने साथियों के साथ धक्का देकर उन लोगों के उपर से गुजार दिया, कुछ की जानें चलीं और कई घायल हुए। भागते हुए सभी पहचाने गए थे बाद में प्रशासन ने जिन चंद लोगों को देखते ही गोली मारने का आदेश दिया उनमें रमेशचंद्र झा भी शामिल थे। रमेश चंद्र झा ने कम उम्र में ही गोरों के दमन का मुंहतोड़ जवाब दिया। जेल की सज़ा काटते हुए उनके अन्दर भारतीय और विश्व साहित्य पढ़ने का चस्का लगा और बाहर आकर वे किसी राजनीतिक पार्टी के कार्यकर्ता होने के बजाए रचनाकार हो गए। इतिहास के पन्नों में जिस जगह के वो हकदार थे वो जगह उन्हें नहीं मिली लेकिन आजीवन उसका उन्होंने कोई शोक नहीं मनाया। आखिरी सांस तक लिखते रहे अपने गांव फुलवरिया में रहते हुए कहानी, उपन्यास और कविताओं की 70 से ज्यादा किताबें लिख डाली। 66 साल की उम्र में 1994 में उनका निधन हो गया।

 

पीर मुहम्मद मुनीस

पीर मुनीस के बेतिया वाले घर में एक दिन पुलिस ने छापा मारा, पुलिसवाले मुनीस के घर में गांधी जी का कोई खत तलाश रहे थे। जब पुलिस वाले आए और हर चीज उलट-पलट कर देखने लगे तब एक किताब के पन्नोँ मेँ दबाकर रखी एक चिट्ठी पर उनकी नजर पडी। अभी वे इस चिट्ठी को उठाते इससे पहले ही मुनिस साहब ने झपटकर वह चिट्ठी उठा ली और उसे मुंह मेँ रख लिया, पुलिस वाले ने जबरन उनका मुंह खुलवाया और चिट्ठी निकालने के लिए हाथ डाला तो मुनीस जी ने दांत काट ली, उसकी दो उंगलियाँ कट गईँ और मुनीस उस पत्र को निगल गए, उन्होने पलटकर कहा कि ‘तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मेरी बीवी के खत पढने की। मुनीस हर वक्त शासन से लोहा लेने और उसका जुल्म सहने को तैयार रहते थे। गांधी के चम्पारण सत्याग्रह के पहले से ही पीर मुहम्मद मुनीस सही मायने में चम्पारण से रहते हुए देश के लिए अभियानी पत्रकारिता कर रहे थे। मुनीस को सीधे गांधी और उनके समकालीनों का स्नेह तो मिला लेकिन आजादी के बाद भुला दिए गए। दुर्भाग्य तो ये देखिए कि जिन गणेश शंकर विद्यार्थी ने उन्हें उठाकर आसमान पर बिठाया था उन्होंने ही उनके जीते जी उनको श्रद्धांजलि दे दी और बिहार की तथा हिन्दी पत्रकार बिरादरी को याद भी नहीँ आया कि उनका कोई ऐसा जबरदस्त पुरखा भी रहा है जिसने अपनी कलम से ब्रिटिश सत्ता से सीधे लड़ने का साहस किया हो। मुनीस एक ऐसे शख्स थे जिनका नील की खेती से सीधा कोई ज्यादा वास्ता न था और ना ही उनका निलहोँ या ब्रिटिश हुकुमत से कोई हित टकराया था, वे सचमुच जिले के किसानोँ का दुख-दर्द देखकर ही इस विषय पर कलम उठाने को मजबूर हुए और जब एक बार शुरुआत की तो मसले को नतीजे तक पहुंचाए बगैर नहीँ रुके और इस बीच अपनी सरकारी नौकरी गंवाने, जेल जाने, छापे और दूसरे नुकसानोँ की परवाह नहीँ की, और वे आन्दोलन मेँ शामिल अकेले व्यक्ति हैँ जिनका जीवन सचमुच अभाव मेँ बीता और इस मायने मेँ वे अभागा थे कि इसी सबके बीच उनका जवान बेटा मर गया और उसके परिवार की परवरिश भी उनके जिम्मे आ गई। मुनीस ने घोर अभाव सहकर भी कभी कोई समझौता नहीँ किया।

 

बत्तख मियां

ये बात तब की है जब महात्मा गांधी मोतिहारी में थे। चम्पारण के नील फैक्ट्रियों के मैनेजरों के नेता इरविन ने महात्मा गांधी को एक रोज बातचीत के लिए बुलाया। ये वो दौर था जब ब्रिटिश हुकूमत ने महात्मा गांधी को नील की खेती करने वालों के बयान दर्ज करने की अनुमति दे दी थी। गांधी के सत्याग्रह का प्रयोग सफल हो रहा था। इरविन ने अपने आकाओं को खुश करने के लिए गांधी को जहर देकर मारने की खौफनाक योजना बना डाली। इरविन ने तय किया कि गांधी को खाने-पीने की चीज़ों में कोई ऐसा ज़हर दे दिया जाए जिसका असर कुछ देर से होता हो। इरविन की कोठी पर मोतिहारी के पास के गांव के ही बतख मियां खानसामा थे। इरविन और उनके करीबियों ने बतख मियां को ये बात बताई और उन्हें डरा-धमका कर विश्वास में लिया। बतख मियां बहुत ही कम जोत के किसान थे, एक तरफ परिवार की जिम्मेदारी थी तो दूसरी तरफ अंग्रेजों का खौफ । बतख़ मियां से कहा गया कि आप भोजन हो जाने के बाद ये दूध का ट्रे लेकर गांधी के पास जाएंगे। अंग्रेजों के जुल्म का अंदाजा कर बतख मियां मना नहीं कर सके। उन्होंने ठीक वैसा ही किया जैसा इरविन का आदेश था। बतख मियां ट्रे लेकर चले गए।  लेकिन जब गांधी के पास पहुंचे तो बतख़ मियां की हिम्मत नहीं हुई कि वो ट्रे गांधी के सामने रख सकें। गांधी ने उन्हें सिर उठाकर देखा तो बतख़ मियां रोने लगे। गांधी को अँदेशा हुआ और उन्होंने बतख मियां को पास बिठाकर पूछना शुरु किया। इरविन और उनके करीबियों के होश फाख्ता हो गए क्योंकि बात खुल चुकी थी। इस घटना के बाद बतख़ मियां का कोई नामलेवा नहीं बचा, उनको जेल हो गई। उनकी ज़मीनें नीलाम कर दी गईँ और उनके पूरे परिवार को तरह तरह से सताया गया। गांधी ने उनके लिए क्या किया इसका कोई प्रमाण भी इतिहास में नहीं मिलता। आश्चर्य की बात ये है कि इस घटना का जिक्र महात्मा गांधी की जीवनी में भी कहीं नहीं मिलता। ये घटना उजागर हुई 1957 में। उस वक्त डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद देश के राष्ट्रपति थे। एक कार्यक्रम के सिलसिले में वो मोतिहारी गए। वहां एक जनसभा में जब वो भाषण दे रहे थे तो उन्हें लगा कि वो दूर खड़े एक आदमी को पहचानते हैं। उन्होंने वहीं से आवाज़ लगाई- बतख़ भाई, कैसे हो? बतख़ मियां को मंच पर बुलाया और ये क़िस्सा वहीं से लोगों को बताया। ये चम्पारण के लिए जैसे एक लोककथा है और बतख़ मियां अंसारी एक सेलिब्रेटेड इंसान हैं, अगर बतख मियां न होते तो न जाने देश और दुनिया का इतिहास और स्वरूप क्या होता।

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