वो ब्रितानी जिसके दिल में धड़कता था भारत

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अनुरंजन झा

जिन दिनों पूरे भारत में ब्रितानी हुकूमत का विरोध हो रहा था और अंग्रेज उसे दबाने के लिए अपनी पूरी ताकत का इस्तेमाल कर रहे थे उन दिनों उन्हीं अंग्रेजों के बीच भी कुछ ऐसे लोग भी थे जो भारत की आजादी के लिए एक हद तक दीवाने थे। आजादी के अमृत महोत्सव की इस कड़ी में आज वैसे ही दो शख्स के जीवन पर एक नजर डालते हैं।

भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल कांग्रेस नेताओं की गिरफ्तारी के बाद देश में जगह जगह दंगे भड़क चुके थे। पुणे के गुलुंचे कैंप के सैनिकों को उस इलाके में कानून-व्यवस्था की बहाली की जिम्मेदारी दी गई थी। लेकिन उनके एक अधिकारी ने दंगों को दबाने वाली टुकड़ी में शामिल होने से इनकार कर दिया। इतना ही नहीं जब उससे सवाल जवाब किए गए तो उसने साफ तौर पर कहा कि उसे लगता है कि ऐसा करना आम लोगों के खिलाफ युद्ध छेड़ने जैसा है। उसकी भावनाएं और सहानुभूति विद्रोही भारतीयों के साथ दिखती हैं। वो कहता है, भले ही कोई ब्रितानी भारतीयों के कृत्यों से सहमत नहीं होता हो, लेकिन इतना तो हर कोई समझ रहा है कि वो (भारतीय) ऐसा कर क्यों रहे हैं, और जब ब्रिटिश प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल अपने भाषण में कहते हैं कि भारत में हुए दंगे जापानियों को मदद करने का कांग्रेसियों का षडयंत्र है तो वह कहता है, ‘चर्चिल का भारत पर दिया भाषण कूड़ा था और कुछ भी नहीं।’ ये शख्स एक ब्रिटिश फौजी है, जो अपनी सरकार के हुक्म का पालन करने भारत आया है और उसे लगता है कि उसकी हुकूमत और सेना ने यहां अत्याचार किए हैं और उससे आजादी पाने का हक भारतीयों को है। इस शख्स का नाम है क्लाइव ब्रैंसन।

ब्रैंसन का जन्म भारत में हुआ था और उसके पिता भी भारत में ब्रिटिश फौजी थे। ब्रैंसन के जन्म के कुछ समय बाद ही वो वापस इंग्लैंड चले गए। भारत आने के बाद ये फौजी अपनी पत्नी को चिट्ठियां लिखता हैं और उन चिट्ठियों में वो अपनी भावनाएं और तात्कालिक भारत की मौजूदा तस्वीरों को बयान करता है। दूसरे अंग्रेज अधिकारी इस बात के लिए ताना देते हैं कि उसके भारतीयों के प्रति दोस्ताना रवैए से ब्रिटिशर्स की बदनामी होती है वो अपना दर्द भी अपनी पत्नी को खत में लिखता है और कहता है कि जब ये ब्रिटिश फौजी यहां वेश्यालयों में रंगरलियां मनाते हैं तो क्या अंग्रेजों की प्रतिष्ठा बढ़ती है। मैं ऐसा नहीं कर सकता। भारत की गरीबी और बेबसी ने ब्रैंसन पर गहरे तक असर किया था एक खत में उसने अपनी पत्नी को लिखा कि 175 वर्षों के साम्राज्यवाद के बाद भारत में परिस्थितियां भयावह रूप से निराशाजनक हो गई हैं और हमें एक अच्छे मित्र की तरह यहां से वापस चले आना चाहिए। महज 37 साल की उम्र में ब्रैंसन की मौत बर्मा में लड़ाई के दौरान हो गई और ब्रैंसन की मौत के बाद, पत्नी नौरीन को लिखी ब्रैंसन की चिट्ठियां एक किताब के रूप में प्रकाशित हुईं जिसने एक दिलदार और भारतीय से प्रेम करने वाले ब्रिटिश फौजी से दुनिया को रू-ब-रू करवाया।

दूसरा विश्व युद्ध छिड़ चुका था और ब्रिटिश आर्मी ने भारत के अलग अलग हिस्सों में कैंप लगाकर सेना में भारतीयों को भर्ती शुरु की थी, उन भारतीयों को ब्रिटिश फौज के साथ मिलकर युद्ध में भाग लेना था। ब्रितानी हुकूमत के इस फैसले के खिलाफ भी आवाजें उठ रही थीं और उन्हीं आवाजों में एक आवाज थी बाबा प्यारेलाल बेदी की, बेदी की गिरफ्तारी के लिए लाहौर में जब पुलिस उनके घर पहुंची तो देखा कि एक ब्रितानी महिला, पूरे भारतीय लिबास में उनके सवालों के जवाब देने के लिए सामने आईँ। उस फौजी अधिकारी को तब और आश्चर्य हुआ जब उसे पता चला कि ये महिला इंग्लैंड के ऑक्सफर्ड यूनिवर्सिटी की पूर्व छात्रा है। सवाल करने वाला अधिकारी भी ऑक्सफर्ड का एल्युमनी था। उसने उस महिला से कहा कि तुम चिंता मत करो और तुम्हें अगर अंग्रेज महिलाओं को दिए जाने वाले विशेषाधिकार चाहिए तो हमें बताओ हम उस दिशा में काम करेंगे, इसपर उस ब्रिटिश महिला ने कहा कि उनके साथ एक भारतीय महिला की तरह ही बर्ताव किया जाए क्यूंकि वो यहां की बहू है। उस महिला को छह माह की जेल हुई और साथ ही शुरूआत हुई उस महिला की भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय भागीदारी की। उस महिला का नाम था फ्रेडा मैरी हॉस्टन, जो भारत में और बाद में फ्रेडा बेदी के नाम से जानी गईँ। फ्रेडा ने कहा था यह उनकी किस्मत थी जो उन्हें भारत ले आई। ताकि वह एक अंग्रेज महिला होकर भारत की स्वतंत्रता की मांग करके एक इतिहास बना सकें। फ्रेडा ने लाहौर में लंबे समय तक पत्रकारिता भी की।

1930 के दशक में फ्रेडा और बाबा प्यारे लाल जिन्हें उनके दोस्त बीपीएल कहते थे, एक साथ ऑक्सफर्ड में पढ़ाई कर रहे थे। उस समय के नौजवान फासीवाद का उदय से चिंतित तो रहते ही थे साथ ही बेरोजगारी भी अपने चरम पर थी। फ्रेडा भी उनमें एक थीं, कॉलेज में दोस्तों के साथ लेबर क्लब और अक्तूबर कम्युनिस्ट्स की बैठक में शामिल होने लगीं। वह ऑक्सफोर्ड मजलिस की साप्ताहिक बैठक में भी जाती थीं। यहां छोटी संख्या में भारतीय छात्र भी आते थे, जो अपने देश के राष्ट्रवाद से जुड़े मामलों पर चर्चा करते थे। यहीं फ्रेडा ने प्यारे लाल बेदी तो देखा और उनसे प्यार कर बैंठी। फ्रेडा संभवत: किसी भारतीय से शादी करने वाली ऑक्सफर्ड की पहली छात्रा थीं। भारत आने के बाद अपने पति के साथ उन्होंने भारत की आजादी के लिए अलग अलग तरीके से अपनी आवाज बुलंद की। उनकी राजनीतिक प्रमुखता स्वतंत्रता के बाद भी बनी रही। 1959 में जब हजारों तिब्बती चीनी उत्पीड़न से बचने के लिए भारत आए, तो फ्रेडा ने इन बहादुर शरणार्थियों की मदद करने के लिए खुद को समर्पित कर दिया। मशहूर फिल्म अभिनेता कबीर बेदी, फ्रेडा की तीन संतानो में दूसरे नंबर के संतान हैं।

(लेखक इन दिनों इंग्लैंड में रहकर, भारत-यूरोप संबंधों पर शोधरत हैं)

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