प्रधानमंत्री मोदी की यूरोप यात्रा

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अनुरंजन झा, इंग्लैंड से

पूरी दुनिया इस वक्त कोविड महामारी का दंश झेल रही है और पिछले दो महीने से ज्यादा समय से चल रहे रूस-यूक्रेन की लड़ाई ने दुनिया को आर्थिक तौर पर अव्यवस्थित सा कर दिया है। इस संकट काल के दौर में और साल 2022 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की यूरोप यात्रा उनकी पहली विदेश यात्रा है। जाहिर है इस यात्रा पर पूरे यूरोप ही नहीं चीन, अमेरिका और रूस समेत दुनिया के दूसरे देशों की भी नजर टिकी है। ये यात्रा तब और महत्वपूर्ण हो जाती है जब हाल ही में ब्रिटिश प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन और यूरोपियन यूनियन प्रमुख उर्सुला वॉन डर लेन की भारत यात्रा हो चुकी हो। भारत यात्रा में बोरिस जॉनसन का बुलडोजर पर चढ़कर तस्वीर खिंचवाना मीडिया और सोशल मीडिया के लिए सुर्खियां जरूर बटोर गया हो लेकिन हकीकत में इस साल के दीपावली तक दोनों देशों के बीच मुक्त व्यापार की बातें उस यात्रा की बड़ी उपलब्धियों में से एक रही है। ठीक उसी तरह नरेंद्र मोदी की जर्मनी और डेनमार्क यात्रा के दौरान उनका ड्रम बजाना मीडिया में सुर्खियां बटोर रहा है लेकिन नरेंद्र मोदी ने इस यात्रा के शुरुआती दो दिनों में यूरोप और अमेरिका की तमाम कोशिशों के बावजूद जिस मजबूती से अपनी बात रखी है वो निश्चित तौर पर एक मजबूत भारत के संकेत तो देता ही है। तो ऐसे में क्या ये माना जाए कि आने वाले दिनों में भारत का डंका इन देशों में बजेगा? या फिर ये ड्रम बजाने तक ही सीमित रह जाएगा? क्यूंकि मामला सिर्फ राजनीतिक दिखावे का नहीं है और इसका आकलन करने के लिए इसे कूटनीतिक और व्यापारिक दोनों स्तर पर ठीक से समझना होगा।

पिछले दो महीने से ज्यादा समय से रूस और यूक्रेन के बीच चल रहे युद्ध में भारत ने दोनों देशों से बराबर दूरी बनाए रखी है। दोनों देशों के राष्ट्रध्यक्षों से कई दौर की बातचीत भी की है और यूक्रेन का साथ दे देश रहे सभी यूरोपीय देशों से भी अपने संबंधों में कोई रुकावट नहीं आने दी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ये दौरा इसी बात का संकेत है। स्पष्ट है कि पूरा यूरोप, रूस को राजनयिक और व्यापारिक स्तर पर लगभग अलग थलग कर चुका है और उसकी आलोचना करने के लिए भारत पर भी दबाव बना रहा है। वैसे में नरेंद्र मोदी की यूरोप के देशों की तीन दिनों की ये यात्रा और इस यात्रा में ये संदेश कि युद्ध किसी समस्या का समाधान नहीं है, निश्चित तौर पर वैश्विक स्तर पर मजबूत होते भारत की निशानी है। यूक्रेन में रूस के युद्ध पर भारत की तटस्थ भूमिका ने पश्चिम को इस वास्तविकता को स्वीकार करने के लिए मजबूर किया है कि सभी शक्तियां दुनिया को उसी तरह नहीं देखती हैं जैसे वाशिंगटन और ब्रुसेल्स (यूरोपियन यूनियन मुख्यालय) देखते हैं।

गौर से देखिए तो ये यात्रा ऐसे वक्त में हो रही है जब कोरोना की मार झेल रही दुनिया अपनी अर्थव्यवस्था को संभालने में जुटी है और ऩए नए प्रयास के जरिए अपने को मजबूत करने की कोशिश कर रही है। जिन देशों की यात्रा नरेंद्र मोदी कर रहे हैं उनमें से फ्रांस में चंद रोज पहले ही राष्ट्रपति इमैनुअल मैक्रां ने दोबारा जीत हासिल की है और जर्मनी के चांसलर ओलाफ शॉल्त्स भी नए हैं। अमेरिका के अलावा, भारत एकमात्र देश है जिसके साथ नॉर्डिक देश, सम्मेलन स्तर की वार्ता करते हैं और डेनमार्क में जिस नार्डिक सम्मिट में मोदी हिस्सा ले रहे हैं उसमें से दो प्रमुख देश स्वीडन और फिनलैंड नेटो की सदस्यता का मन बना चुके हैं जिसका रूस उसी तरह विरोध कर रहा है जैसे यूक्रेन की कर रहा था। निश्चित तौर पर अगर ये दोनों देश नेटो की तरफ अपना कदम बढ़ाते हैं रूस की नाराजगी बढनी तय मानी जानी चाहिए। लेकिन इन सबसे बेपरवाह होकर भारतीय प्रधानमंत्री ने इन देशों की यात्रा की है और रुस-यूक्रेन युद्ध पर स्पष्ट राय रखते हुए कह दिया है कि रास्ता बातचीत से ही निकाला जाना चाहिए। वो भी उन देशों में जाकर जो यूक्रेन को हथियार भेज रहे हैं। साथ ही मोदी उन देशों के राष्ट्राध्यक्षों से भी मिल रहे हैं जो नेटो में जाने को बेताब हैं। यानि स्पष्ट तौर पर रूस और उसके विरोधियों दोनों को अपनी स्थिति का अहसास नरेंद्र मोदी की इस यूरोप यात्रा ने करा दिया है। आप सोचिए कि जिस रूस का यूरोपीय संघ अभी दुश्मन बना हुआ है और उस यूरोपीय संघ की सबसे मजबूत अर्थव्यवस्था वाला देश जर्मनी ये जानते हुए कि भारत, रूस से तेल का दुनिया भर में दूसरा सबसे बड़ा आयातक देश है, हर तरह की बातचीत करने का न सिर्फ चाहत रखता है बल्कि उस दिशा में मजबूती से आगे बढ़ रहा है। कहां तो एक तरफ जर्मनी के चांसलर के सलाहकारों ने पहले ये सलाह दी थी कि अगले महीने जर्मनी में होने वाले जी-7 की बैठक से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को दूर रखा जाए और ऐसी खबर अंतरराष्ट्रीय मीडिया में तैरने भी लगी लेकिन जर्मनी ने उन खबरों पर न सिर्फ विराम दिया बल्कि भारत के साथ व्यापारिक रिश्तों को और मजबूत करने का भरोसा भी दिया है। जाहिर है कि पश्चिमी देशों को भारत एक बड़े बाजार के तौर पर दिखता है और संभावित लाभ के लोभ में वो भारत से दूरी बनाने की कल्पना इस दौर में नहीं कर सकते हैँ। लेकिन इन सबके बीच भारत की एक चिंता है जिसका समाधान निकालने की कोशिश भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस यात्रा के दौरान करेंगे और वो समस्या है चीन का भारत के प्रति रवैया। रूस-यूक्रेन युद्ध के दौरान जिस तरीके से रूस और चीन की नजदीकियां बढीं है निश्चित तौर पर भारत के लिए चिंता भी बढ़ी हैं और ऐसे में यूरोप को साधना भारत के लिए भी उतना ही जरूरी है जितना भारत को साधना यूरोप के लिए, भले ही दोनों के मकसद अलग अलग हों लेकिन दोनों मौजूदा दौर में एक दूसरे की जरूरतें पूरी करते हैं।

आने वाले दिनों में भारत को पहले से ज़्यादा यूरोप की ज़रूरत पड़ेगी, चाहे वो डिफेंस सिस्टम को मजबूत करना हो या फिर अपनी अपनी आर्थिक स्थिति मजबूत करनी हो या फिर नए नए तकनीक के सहारे एक नया बाजार खड़ा करना हो। इन सबके संकेत मोदी ने इस यात्रा के दौरान दिए जब स्टार्ट अप इंडिया की सफलता का जिक्र किया या फिर डेनमार्क के प्रवासी भारतीयों को इस बात के लिए प्रोत्साहित किया कि हर एक भारतीय अगर पांच गैर भारतीय को भारत घूमने के लिए प्रेरित करे तो निश्चित तौर पर भारत की अर्थव्यवस्था मजबूत होगी। उधर जर्मनी अगर दूसरे यूरोपीय देशों के साथ साथ भारत को भी साथ लेकर चलता है तो अपनी मज़बूती के बलबूते एक ऐसे इलाक़े के तौर पर उभर सकता है जो अमरीका से अलग स्वतंत्र रूप से अंतरराष्ट्रीय पटल पर अपना रोल निभाए जैसा कि जर्मनी काफी लंबे समय चाहता रहा है। जर्मनी जी-7 देशों का अध्यक्ष है रूस-यूक्रेन युद्ध में उसकी भूमिका स्पष्ट है फिर भी जर्मनी और भारत सहमत हैं कि रूस को अलग-थलग नहीं किया जा सकता और उससे जुड़ा रहा जाए और ज़ोर दिया जाए कि वो नियमों के भीतर रहे, ये निश्चित तौर पर भारत की भूमिका परिणाम है। इन सबके बीच भारत नहीं चाहता कि यूक्रेन में रूस की कार्रवाई से चीन के उल्लंघनों से दुनिया का ध्यान हटे। तभी तो यात्रा से पूर्व प्रधानमंत्री मोदी ने कहा, “यूरोप की मेरी यात्रा ऐसे वक़्त आई है, जब इलाक़े में कई चुनौतियां और विकल्प हैं। इस बातचीत से मेरा मक़सद है कि मैं यूरोपीय सहयोगियों, जो कि भारत की शांति और समृद्धि की खोज के अहम साथी हैं, के साथ सहयोग की भावना को मज़बूत करूं।” नरेंद्र मोदी का ये यूरोपीय दौरा इस लिए भी महत्वपूर्ण है क्यूंकि उम्मीद है कि 24 मई को मोदी टोक्यो में “क्वाड” की अगली बैठक में शामिल होंगे। दो महीने में दूसरी बार होगा जब अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन और नरेंद्र मोदी शिखर वार्ता कर रहे होंगे, अप्रैल में दोनों नेताओं के बीच वर्चुअल शिखर सम्मेलन हुआ था, तो निश्चित तौर ये कहा जा सकता है कि यूरोप यात्रा में सिर्फ ड्रम नहीं बज रहा है डंका बजाने की शुरुआत हो रही है।

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