रामलीला मैदान का अंश

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जैसा कि हम सब जानते हैं दिल्ली का रामलीला मैदान, आंदोलन के लिए मशहूर है। हालांकि यहां रैलियां और प्रदर्शन भी होते रहे हैं लेकिन आजादी के बाद से इस मैदान में हुए आंदोलनों ने देश की दिशा बदली है। चाहे वो इंदिरा गांधी की सरकार के खिलाफ जयप्रकाश नारायण का आंदोलन हो, यूपीए के भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना का आंदोलन हो या फिर कालाधन के खिलाफ स्वामी रामदेव का। यह मैदान इन आंदोलनों का गवाह रहा है।

शायद इन्हीं गवाही पर केंद्रित होकर वरिष्ठ पत्रकार अनुरंजन झा अपनी किताब के साथ जल्द सामने आ रहे हैं और इस किताब का नाम भी उन्होंने रखा है ‘रामलीला मैदान- A series of false gods’.

हाल के समय में अन्ना के आंदोलन के लिए यह मैदान खूब चर्चा में रहा जब अन्ना ने यहां आमरण अनशन किया और देश के टीवी न्यूज चैनलों ने इसे लगातार लाइव दिखाया। निस्संदेह यह भारतीय लोकतंत्र और मीडिया के लिए ऐतिहासिक घटना थी।

13 दिनों के इस आंदोलन के दौरान रामलीला मैदान में बहुत कुछ घटा, काफी कुछ हमने देखा-जाना लेकिन बहुत सारी ऐसी घटनाएं भी परदे के पीछे घटी, जो कैमरों की पहुंच से दूर थी। ऐसा लगता है रामलीला मैदान में घटी ऐसी ही घटनाओं का अपनी किताब के जरिए पर्दाफाश करने जा रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार अनुरंजन झा। किताब प्रकाशित होकर जल्द बाजार में आने वाली है।

कंटेंट को लेकर लेखक अनुरंजन झा ने  समाचार4मीडिया के साथ किताब का एक अंश साझा किया है, जिसे आप नीचे पढ़ सकते हैं:

(कई सारे ऐसे समाजसेवी और बुद्धिजीवी जो आंदोलन के शुरुआत के दिनों में मूवमेंट में दिलचस्पी नहीं ले रहे थे या फिर धुर विरोधी थे अब एक – एक कर मंच पर आ रहे थे, क्या उनका आना अनायास था या फिर सोची समझी रणनीति का हिस्सा था।)

द जब इस जनलोकपाल की लड़ाई लड़ना चाहते थे तो उनको कोई चेहरा नहीं मिल रहा था जिसको आगे कर वो अपनी मंशा पूरी कर पाएं। स्वामी रामदेव अरसे से कालाधन-कालाधन चिल्ला रहे थे। या तो वो अरविंद को भांप गए थे या फिर अरविंद पर उनको भरोसा नहीं हुआ था कि यह व्यक्ति लंबी लड़ाई लड़ सकता है। जितने चालाक स्वामी रामदेव हैं उसमें दोनों बातें संभव है और वैसे भी रामदेव श्रेय शेयर नहीं करना चाहते अगर वो ऐसा करने वाले व्यक्ति होते तो उऩके गुरु अचानक लापता नहीं होते और बालकृष्ण को भी उचित जगह मिलती। लिहाजा काफी मशक्कत और लगभग पूरे देश की खाक छानने के बाद अरविंद अन्ना के पास पहुंचे थे।

जैसा कि अब यह बात छुपी हुई नहीं है कि अरविंद इस आंदोलन के लिए सबसे पहले पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम के पास गए उनकी स्वीकृति नहीं मिलने के कारण वो श्री श्री रविशंकर के पास गए और फिर रविशंकर के बताए रास्ते पर चलकर अरविंद ने अन्ना का दामन थामा था। स्वभाव से सरल और बहुत ही सीधे-सादे अन्ना काफी समय तक अरविंद की मंशा भांप नहीं पाए थे। अप्रैल में जब आंदोलन शुरु हुआ था तो उसी वक्त अन्ना को सोसायटी से उपर का दर्जा दिलाने की कोशिश की गई थी।

दिल्ली में मीडिया ने काफी जोर भी लगाया लेकिन अन्ना अब तक पूरे देश में नहीं पहुंच पाए थे। उन दिनों जब हमने बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान का दौरा किया तो हमें यह अहसास हुआ कि देश में अन्ना को पहुंचने में अभी वक्त लगेगा या फिर किसी न किसी मोर्चे पर एक जबरदस्त सफलता की दरकार दिख रही थी। अप्रैल के आंदोलन में काफी ऐसे समाजसेवी थे जो मंच पर आऩा नहीं चाहते थे, मसलन योगेंद्र यादव, मेधा पाटकर, अरुणा राय। हमें एक वाकया याद है – अप्रैल के आंदोलन में मंच से मनीष और कुमार विश्वास लगातार योगेंद्र यादव को मंच पर आने के लिए न्यौता दे रहे थे। योगेंद्र वहां जाने से कतरा रहे थे। काफी बार बुलाने के बाद और फिर अरविंद के आग्रह के बाद ही योगेंद्र यादव मंच पर गए। जिन योगेंद्र यादव को मान-मनुहार के बाद अप्रैल में मंच पर बुलाया गया था वो अगस्त में उनकी टीम का हिस्सा बन चुके थे लेकिन बाद में उनके साथ क्या हुआ यह सबने देखा योगेंद्र यादव के प्रकरण पर विस्तार से चर्चा आगे करुंगा।

यहां मैं सिर्फ बताने की कोशिश कर रहा हूं कि अगस्त में करप्शन और महंगाई के विरुद्ध चल रहे आंदोलन में अलग-अलग विचारधाराओं के बुद्धिजीवी शामिल हो रहे थे। देशहित के किसी उद्देश्य के लिए अलग-अलग विचारधारा के लोगों का साथ आना तो ठीक था लेकिन इससे टकराव की आशंका बढ़ रही थी क्योंकि इस आंदोलन की कोई विचारधारा तय नहीं हो पा रही थी।

तत्कालीन बीजेपी अध्यक्ष नितिन गडकरी ने आंदोलन की सराहना की थी और समर्थन देने का ऐलान किया था उधर अरविंद के पुराने मित्र और दिल्ली की मुख्यमंत्री के बेटे संदीप दीक्षित भी सरकार की कुछ नीतियों की आलोचना कर रहे थे।

संघ की मदद का असर था कि तत्कालीन बीजेपी अध्यक्ष ने आंदोलन को समर्थन देने का ऐलान कर दिया। अप्रैल से अगस्त तक हालात बहुत बदल चुके थे जहां अप्रैल में राजनेताओं को मंच से दूर रखा गया था वहीं उसके बाद एकदिनी सांकेतिक अऩशन में कांग्रेस से अलग सभी पार्टियों के नेताओँ को मंच पर जगह दी गई। अगस्त में तो संघ और बीजेपी ने पूरी कोशिश की कि इस आंदोलन को कांग्रेस के खिलाफ का आंदोलन बना दिया जाए।

कुमार विश्वास और किरण बेदी चुंकि बीजेपी से सॉफ्ट कार्नर रखते थे वो इसका लाभ बीजेपी को दिलाना चाहते थे। हालांकि कुमार विश्वास उन्हीं दिनों से एक अलग धड़ा बनाने की वकालत कर रहे थे। अरविंद केजरीवाल के इशारे पर कुमार विश्वास ने संदीप दीक्षित को इशारा भी किया कि अन्ना के इस आंदोलन का लाभ राहुल गांधी उठा सकते हैँ। कवि महज कवि नहीं थे वो राजकवि भी नहीं थे वो उन कवि हृदय व्यक्तियों में शुमार होना चाहते थे जो सत्ता के शीर्ष पर आसीन हों। वो पेंटर तो बनना चाहते थे लेकिन राजा रवि वर्मा की तरह। कुमार के संकेत के बाद संदीप दीक्षित ने केंद्र की सरकार की कुछ मुद्दों पर आलोचना भी की।

बीजेपी के खुलेआम समर्थन देने के ऐलान के चंद घंटो के भीतर ही केजरीवाल को सफाई देनी पड़ी थी क्योंकि उससे आंदोलन को एक पार्टी के विरोध में सीमित हो जाने का खतरा था। अब अन्ना की टीम चाहती थी कि आंदोलन का श्रेय राहुल गांधी ले जाएं। वो अन्ना के मंच पर आएं कुछ आश्वासन दें और अन्ना का अनशन तुड़वाएं। अरविंद के देश के पहले लोकपाल बनने का रास्ता साफ हो… अन्ना देश के दूसरे गांधी साबित हों और बाकी की राजनीति बाद में तय की जाए। उस वक्त तक मनीष, कुमार विश्वास, प्रशांत भूषण के लिए कुछ भी भूमिका तय नहीं हो पा रही थी सिवाए एक सामान्य कार्यकर्ता के, हां किरण बेदी को दिल्ली का एलजी बनाने की सहमति हो रही थी। राहुल गांधी की तरक्की नहीं चाहने वाले उनके सलाहाकारों ने एक अविस्मरणीय मौका हाथ से गवां दिया था। अगले दिन संसद में राहुल गांधी उलटबांसी करते नजर आए थे।

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